*** त्रिशंकु जिंदगी ***
मुसाफ़िर को जाना किधर था
रोका घर के मोह ने उसे था
क्या पता था उसको कब घर
उसका रौंद दिया किसी ने
बन त्रिशंकु अधर जिंदगी में
लटका रहा बीच मझधार यूं
तमाम उम्र घर ना घाट का
ना ऊपरवाले ने पास बुलाया
ना नीचे ने चैन से रहने दिया
ना मिला कोई विश्वामित्र जो
दूसरा स्वर्ग रहने को बना सके
आज भी इस त्रिशंकु जीवन को
जो पार लगा गंतव्य पहुंचा सके
जीवन को जो वार-संवार सके ।।
?मधुप बैरागी