त्रिलोकी छंद
उगते रवि को नमन,नियम संसार का।
स्वार्थी है यह जगत,मोल क्या प्यार का।।
(2)
बोलो मीठे बैन,बने बिगड़े काज।
बात प्रेम से बने, बोल मनुहार का।।
(3)
बैरी अपना बने, प्यार में वह शक्ति।
सदा प्रेम की जीत,काम क्या हार का।।
(4)
हरि नाम संग भक्त, खड़ा बीच सागर।
नैया को भय नहीं,अब मंझधार का।।
(5)
कोई सानी नहीं, सृष्टि में मातु का।
माता दूजा नाम, नेह का प्यार का।।
(6)
मानो ईश्वर मिला, रूप मनुज का धर।
जो कि सहारा बना दुखी बीमार का।।
(7)
निर्मल जिसका हृदय, कर्म दया पूरित।
आशीष सदा मिले, उसे करतार का।।
(8)
दुख की पतझड़ मिटे,खिले सुखद सरसों ।
मज़ा मिलेगा तभी, वसंत बहार का।
(9)
तज दे जो निज स्वार्थ, तिलांजलि सुखों की।
प्रभु का दूजा रूप,वही संसार का।।
रंजना माथुर
अजमेर राजस्थान
मेरी स्वरचित व मौलिक रचना
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