खुशियों का बीमा (व्यंग्य कहानी)
खुशियों का बीमा
भारतीय सभ्यता और संस्कृति की बात ही निराली है। यहाँ मानव जीवन का ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं है जिसमेँ धर्म और अध्यात्म की घुसपैठ न हो। सौ बात की एक बात कहूँ तो ये कि मनुष्य के जन्म के पहले से लेकर मृत्यु के बाद तक हर जगह इनकी घुसपैठ देखी जा सकती है। शादी-व्याह जैसे कैजुअल मामले में भी, जिसे इस्लाम और ईसाई धर्म में महज एक सामाजिक समझौता माना जाता है, वहीं हिंदू धर्म में इसे एक पवित्र संस्कार माना गया है। कहाँ तो आजकल एक ही जन्म घिसटते-घिसटते बिताना मुश्किल होता है, वहीं इसे सात जन्मों का बंधन बताया जाता है। मुझे तो पक्का विश्वास है कि विवाह को सात जन्मों का बंधन बताने वाला कोई अविवाहित ही रहा होगा, वरना इतनी बड़ी बात किसी विवाहित व्यक्ति के मुँह से तो निकलना संभव नहीं है।
खैर, बोलने वाला तो बोल और लिखने वाला लिख गया, बच गए हम मानने वाले निरीह मिडिल क्लास मानव। चाहे जो भी हो, जैसे भी हो, ये बंधन तो बंधन है जन्मों का… साथ निभाना साथिया… भले ही इसके लिए बारंबार पौव्वा-अध्धी का भी सहारा क्यों न लेना पड़े।
सच कहूँ तो इस गठबंधन के निर्वाह में कभी-कभी नखरे इतने नाकाबिल-ए-बर्दाश्त हो जाते हैं कि पौव्वा-अध्धी जरूरी हो जाता है, वरना बी.पी. लेबल यूँ अन-बैलेंस्ड हो जाए कि इस गाड़ी के एक पहिए का अस्तित्व ही खत्म हो जाए और एवज में दूसरे को हवालात में रहना पड़ जाए।
खैर, ये तो हुई विषम परिस्थितियों की बात। अब बात करते हैं लगभग पंचानबे प्रतिशत नॉर्मल लाइफ बिताने वाले विवाहितों की। यहाँ प्रतिशत का उल्लेख करने में हमने बेशर्मी की सारी हदें पार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। वैसे सच किसी से छुपा थोड़े न है।
जो भी हो, दिन की शुरुआत पप्पी-झप्पी के बाद नित्य कर्म से निपट चाय-नास्ते के बाद ऑफिस, ऑफिस में एक-दो बार समय निकाल कर बेवजह बतियाने, प्यार जताने और शाम को फिर से वेलकम पप्पी-झप्पी, चाय-पानी और भोजन के बाद टी.व्ही. देखते गुड नाईट मोड में चलने वाली दिनचर्या में क्रमशः पप्पू और पिंकी के आने के बाद धीरे-धीरे बदलाव भी आने लगा। परिवार के साथ ही साथ घर के खर्चे भी बढ़ने लगे, बावजूद इसके पता नहीं कब पौव्वा फिर अध्धी भी जरूरी घरेलू सामान की सूची में शामिल हो गया।
वैसे तो हम शरीफों की तरह रात को अक्सर सोते समय ही दवाई की तरह रूखा-सूखा चना या फ्राई चिकन के साथ चार-छह पैग ले लेते। अब हफ्ते में कभी-कभार पति-पत्नी के बीच कहा-सुनी हो जाना कोई बड़ी बात तो नहीं। वैसे मुझे भली-भांति याद है कि जब भी ऐसा कुछ होता था, कुछ पड़ोसी आकर समझा-बुझाकर मामला शांत कर देते थे।
रात गई, बात गई की तर्ज पर अगले दिन सुबह श्रीमती जी पूर्ववत बड़े प्यार से दिनचर्या शुरु कर मोहक मुस्कान के साथ शाम को जल्दी आना कह कर ऑफिस के लिए विदा करती और शाम को स्वागत। यूँ ही दिन चांदी और रात सोने की तरह बीत रहे थे।
परंतु पिछले कुछ दिनों से मुझे श्रीमती जी के व्यवहार में आश्चर्यजनक बदलाव देखने को मिला। नतीजा, लगातार पौव्वा-अध्धी का सहारा और पड़ोसियों की समझाइश। ‘जानू’, ‘आई लव यू’, ‘अपना ख्याल रखना’, ‘शाम को जल्दी आना’ सुनने को कान तरसने लगे, साथ ही कान खड़े भी हो गए।
पत्नी के व्यवहार में आए इस परिवर्तन का कारण जानने को मन व्याकुल हो गया। हमने अड़ोस-पड़ोस के लोगों से यूँ ही बात की कि विगत कुछ दिनों में आसपास क्या कुछ खास घटा है। एक पड़ोसी ने बहुत ही गंभीर बात बताई कि 20-22 दिन पहले एक बीमा कंपनी वाले हमारी कॉलोनी में प्रजेंटेशन देकर गए हैं और खास बात यह कि प्रजेन्टेशन के बाद कॉलोनी की लगभग सभी महिलाओं ने सप्ताह भर के भीतर एक-दो पॉलिसी भी ली ही है।
”हूँह, तो यह बात है श्रीमती जी के मूड उखड़ने का” मन में सोचा। तुरंत मुझे याद आया कि 20-22 दिन पहले श्रीमती जी ने बच्चों के भविष्य की दुहाई देकर दस लाख रुपये की बीमा पॉलिसी के पेपर पर उन खास पलों में कैसे साइन करवा लिया था। जबकि उसने समझाने की भरसक कोशिश भी की थी कि ए.टी.एम. के साथ मिलने वाले टर्म इंस्योरेंस के अलावा दो-दो लाख रुपये के प्रधानमंत्री बीमा योजना भी आलरेडी ले रखी है।
अब हमने उस बीमा एजेंट का पता-ठिकाना पता लगाना शुरू किया। थोड़ी-सी मेहनत के बाद ही हम दो पड़ोसियों के साथ, जिनकी हालत कमोबेश हमारे जैसी ही थी, उसके सामने खड़े थे।
हमने उस मरियल से दिखने वाले ओव्हर स्मार्ट बंदे को बड़े ही प्यार से समझाया, “देखो भइए, तुमने कॉलोनी की भोली-भाली महिलाओं को इमोशनल करके पॉलिसी तो बेच दी है, पर ये मत भूलो कि हर बार प्रीमियम हमारे ही जेब से निकलना है। अब तुम्हारी भलाई इसी में है कि हमारी कॉलोनी में एक प्रजेंटेशन और दो। सभी महिलाओं को अच्छे से समझाओ कि शराब या किसी भी प्रकार के नशे या संदिग्ध मौत पर बीमा का क्लेम नहीं मिलता है।”
सामने साक्षात यमदूतों को देख और पॉलिसी लेप्स होने के भय से वह भी तुरंत मान गया। नतीजा कुछ ही दिनों में हमारी गृहस्थी की गाड़ी पटरी पर आ गई।
————————————–
डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर, छत्तीसगढ़