त्याग
कोयल कुहूक कर
माहौल गुंजा जाती है
बादल बरस कर
मिट जाते है
मधुमक्खी
शहद के छत्ते ही छत्ते
भर जाती है।
कितना अनुकरणीय है
यह आचरण।
न लालच है
न लोभ ।
मानव इन सबको
लपक कर,
झपट लेता है।
भोग लेता है।
और,
भूल जाता है
मानव, कभी नहीं सीखता।
किसी के लिए
बनना और उसकी
खुशी के लिए मिटना
मानव तो बस
फलता है फूलता है फैलता है
घमंड में ।
अंतिम सांस के समय
अफसोस करता है
खुद के भोगी होने पर।
डा पूनम पांडे