तो बहु कहाँ से लाओगे??
नन्ही सी इक कली हूँ मैं
कल मैं भी तो इक फूल बनूँगी
महका दूंगी दो घर आँगन
खिलकर जब मैं यूँ निखरुंगी
ना कुचलो अपने कदमों से
यूँ मुझको इक फल की चाहत में
फल कहाँ कभी बागबां का हुआ है
गिरता अक्सर गैरों की छत पे
उम्र की ढलती शाम में जब
ना होगा साथ कोई साया
याद आयेगा ये अंश तुम्हारा
जिसको तुमने खुद ही है बुझाया
क्या इन फलों से ही है माली
तेरी इस बगिया की पहचान
गुल भी तो बढ़ाते है खिलकर
तेरी इस गुलिस्तां की शान
बोलो फूल ही ना होंगे तो
तुम फल कहाँ से पाओगे
बेटी जो ना होगी किसी की
तो बहु कहाँ से लाओगे?
तो बहु कहाँ से लाओगे??????
✍लोधी डॉ. आशा ‘अदिति’
भोपाल