तो गैर पर तुम जवानी लिख दो!!
एक ग़ज़ल के आबरू ओ अदब़ पर एक गुस्ताख़ी मुलाहिज़ा करें।
12–122–12–122//12–122–12–122
कोई तो तुहमत के पहलुओं पर हमारी ग़म की कहानी लिख दो।
जो आंँख में हो लहू नहीं तो हमारी अश्क़ों को पानी लिख दो।
ये ग़म की दुनियांँ मुझे मुबारक , तुम्हें ख़ुशी से दुआएंँ दूंगा।
न शौक़ मेरा है जिस्म़गी का ,तो गैर पर तुम जवानी लिख दो।
मेरे खिलाफ़त में वो नशा हो कि राजदाँ भी अज़ाँ पुकारे।
मेरे बयांँ ए मुहब्बतों को फ़िजा की शै ज़िन्दगानी लिख दो।
जो हो मुहब्बत में सूफ़ियत तो ख़ुदा भी दिखता है यार में ही।
जो यार ख़ुद को ख़ुदा बताए तो इश्क़ को फिर शैतानी लिख दो।
ये है हक़ीक़त कि इस जहांँ में वो दौर– ए–उल्फ़त रही नहीं अब।
कि इस फिज़ा की हसीन रौनक से मस्त मौसम सुहानी लिख दो।
जहांँ अदब़ से झुकाए सर हम वहीं है काशी वहीं है काबा।
तो इस मुहब्बत में चांँद का अब, हमीं से शिकवा ग्लानी लिख दो।
©®दीपक झा “रुद्रा”