…तो खलता है
जिसने बालों को सहलाया,
घोड़ा बन पीठ पर बहलाया।
उँगली फड़ करके टहलाया,
जिससे हमने जीवन पाया।
उसका पन तिल तिल ढलता,
तो खलता है।
उससे हमने अनुराग लिया,
मेरे हेतु स्वयं सुख त्याग दिया।
मैं सो जाऊं वो रहे जागा,
वह भी पाया जो नहीं मांगा।
जब कमियों में वह पलता,
तो खलता है।
चेहरे पर आ जाती झाई,
चश्में में आँखे मुरझाई।
जब गमन गति रुक जाती है,
और मेरु तनिक झुक जाती है।
वो डंडा लेकर चलता,
तो खलता है।
है रहट पात्र के सम जहां,
चढ़ता ढलता जीवन यहां।
उगते सूरज से हम चढ़ते,
वो अस्ताचल पथ पर बढ़ते।
एक दिन रहता कर मलता
तो खलता है।
मां बाप होते दूजे ईश्वर,
आशीष सदा रहता हम पर।
जितना हो सेव करें इनका,
रहे ध्यान नित्य इनके तन का।
जिसने भी इनका दिल तोड़ा,
बददुआ अग्नि में जलता,
तो फिर खलता है।
सतीश सृजन, लखनऊ.