तेवरी : युग की माँग + हरिनारायण सिंह ‘हरि’
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कवि या कथाकार अपने चारों ओर व्याप्त परिवेश से प्रभावित होकर ही कुछ लिखता है। चाहे वह लेखन उस परिवेश का समर्थन करे या विरोध। वह उस परिवेश को संदर्भ में रखकर लिखता है, जिससे उसका सीधा ताल्लुक होता है, जिसमें वह जीता है। विशेष भाव-सम्प्रेषण के लिये के छन्दविशेष या काव्यरूपविशेष की आवश्यकता पड़ती है। यही कारण है कि आज हमें ‘तेवरी’ विधा की आवश्यकता पड़ी है, जिससे विधाविशेष में हम युगानरूप भावों को सही ढँग से सम्प्रेषित कर सकें । ‘तेवरी’ युग की माँग है और हम सभी तेवरीकारों का यह कर्तव्य है कि युग की माँग और युग की पुकार को तेवरों के मार्फत सम्प्रेषित करें।
‘तेवरी’ समकालीन सामाजिक व्यवस्था में व्याप्त अन्तविरोधों पर कुठाराघात करने वाली विधा है। साथ ही यह एक ऐसे समाज की स्थापना की आवश्यकता को महसूस करती है, जिसमें आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, और वैचारिक शोषण की गुंजायश नहीं हो। ‘तेवरी’ सच को सच और झूठ को झूठ कहने के लिए कृतसंकल्प है।
‘तेवरी’ दिवास्पन्न नहीं देखती, बल्कि यह यथार्थ के धरातल पर खड़ी है। ‘तेवरी’ शषितों के लिये उस तलवार के समान है, जिसकी मदद से वह अपनी रक्षा भी करते हैं और दुश्मनों पर आक्रमण भी।
‘तेवरी’ क्रान्तिकारी विचार और मान्यता रूपी सेना के लिए अग्रिम दस्ते का काम करती है। ‘तेवरी यथार्थवादी विचारधारा की पोषक है। यह अन्य किसी भी वाद की पोषक या पक्षधर नहीं है। इसमें अपनी माटी की सुगन्ध आती है।
जहाँ तक तेवरी के शिल्प का सवाल है, हम इसे ग़ज़ल से अलग की विधा मानते हैं। ‘तेवरी’ हिन्दी का एक विशेष काव्य-रूप है, जो मांत्रिक व वर्णिक छन्दों पर आधारित है।