तेवरी पर आलेख
तेवरी का सौन्दर्य-बोध
+ बिन्देश्वरप्रसाद गुप्त
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तेवरी, दिनानुदिन साहित्य की एक सशक्त विधा का रूप ले रही है, यह निर्निवाद सत्य है। दरअसल इसका मूल कारण- आज की विकट व संकटपूर्ण परिस्थितियाँ हैं। साहित्य युग का प्रतिनिधित्व करता आया है, इस अर्थ में तेवरी आज महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। वास्तव में आज की परिस्थिति जैसी असहाय और पंगु हो गयी है, वैसी पहले कभी न थी।
आज तेवरी तथा ग़ज़ल के बीच मानसिक संघर्ष है। कुछ लोग तेवरी को ग़ज़ल का ही प्रारूप मानते हैं। उनका कहना है-‘‘जब ग़ज़ल के ही सारे नियम तेवरी में मौजूद हैं, तब इसका दूसरा नाम ‘तेवरी’ के रूप में क्यों दिया जाये? ‘तेवरी’ नाम से एक अलग साहित्यिक विधा चलाने का कोई औचित्य नहीं। ग़ज़ल भी तेवरी जैसी लिखी जा रही है और उसमें वहीं गुण हैं जो तेवरी में दीख पड़ते हैं।’’
जबकि कुछ विद्वानों का मानना है- ‘‘ग़ज़ल और तेवरी में अन्तर रखना अतिआवश्यक है। तेवरी समय की माँग है, परिस्थिति का तकाजा है। ग़ज़ल में वे बातें और अर्थ सन्निहित नहीं है जो तेवरी में होते हैं। वह चीख, छटपटाहट और कसमसाहट, ग़ज़ल से नहीं निकल पाती जिस मायने में तेवरी बिल्कुल सक्षम है।’’
तेवरी के अस्तित्व का हम सूक्ष्मातिसूक्ष्म परीक्षण एवं मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करें–
किसी व्यक्ति की मृकुटि तन गयी तो लोग कह उठते हैं कि उसका तेवर चढ़ गया। ‘तेवर’ चढ़ते का तात्पर्य- तमतमाहट, आक्रोश, क्रोध से है। अब सवाल उठता है कि उसका तेवर क्यों चढ़ा? इसके मूल में अवश्य ही कुव्यवस्था की विसंगतियाँ होंगी या ऐसी व्यवस्था के विरुद्ध आक्रोश प्रकट करने की एक अभिव्यक्ति-
‘मौसम बड़ा उदास है, अब तेवरी कहो।
पीड़ा के आसपास है,अब तेवरी कहो ‘। [ गिरि मोहन गुरु ]
सिर्फ अभिव्यक्ति ही नहीं, अन्याय व शोषण के विरुद्ध जेहाद छेड़ने की स्पष्ट उग्रता भी तेवरी में दिखाई देती है यथा –
”तब खौफ न होगा मेहनतकश के जीवन की पगडन्डी में।
जब फोड़ रहेगा हर मजूर, जुल्मों के बुनियादी को।।
[ शिव कुमार थदानी ]
तेवरी तथा ग़ज़ल के बीच बुनियादी दृष्टिकोण से विचार करें तो जो बातें ‘तेवरी’ से निकलती हैं, वह ‘ग़ज़ल’ से नहीं। ग़ज़ल के अस्तित्व पर हम विचार करें तो यह रीतिकालीन, मुगलकालीन शायरों की देन है। वास्तव में ग़ज़ल उस समय के शायरों द्वारा रचित शृंगार-रस के ओत-प्रोत नायक-नायिका के संयोग व विरह की अनुभूतियों से उत्प्लावित मार्मिक, हृदयस्पर्शी व करुणापूर्ण दास्तान थी और आज इस आधुनिक परिवेश में भी ‘ग़ज़ल’ शब्द का अर्थ मस्तिष्क से उसी छवि को प्रतिबिम्बित करता है। इस दृष्टिकोण से तेवरी विधा का अस्तित्व ग़ज़ल के बिल्कुल पृथक होना ही चाहिए।
तेवरी में नायक-नायिकाओं की विरह-दास्तान सुनने को नहीं मिलेगी। जैसा गुण, वैसा नाम और वैसा ही काम | यदि आप तेवर चढ़े व्यक्तियों में प्रेमालाप करने लगें तो फिर अंजाम क्या होगा? इस बात का अनुमान आप अच्छी तरह लगा सकते हैं। संभव है, वह दो-चार थप्पड़ आपको जड़ भी दें। यही बात तेवरी के साथ बिल्कुल सटीक बैठती है।
तेवरी को ग़ज़ल कह देना या ग़ज़ल के रूप में स्वीकार करना, वास्तव में तेवरी साहित्यिक विधा के साथ बलात्कार करना होगा।
इस प्रकार मेरी समझ में, ग़ज़ल और तेवरी दोनों अलग-अलग परिस्थिति, मानसिकता की देन हैं। तब हम कैसे उन्हें एक ही स्थान पर बिठा सकते हैं? यह तो वही कहावत चरितार्थ हुई- ‘एक म्यान में दो तलवार नहीं रह सकतीं’।
इस सम्बन्ध में यह विवाद कि तेवरी ग़ज़ल का ही रूप है, बिल्कुल निरर्थक है, क्योंकि रूप भले ही ग़ज़ल जैसा पाया हो, किन्तु ग़ज़ल के समान इसने आशिकाना मन नहीं पाया है। अतः आज जो लोग ग़ज़ल के नाम से तेवरी का भाव दे रहे हैं, वास्तव में वे ग़ज़ल की मूल भावना से खिलवाड़ तो कर ही रहे हैं, साथ ही तेवरी की प्रतिष्ठा पर आघात भी पहुँचा रहे हैं।
वैसे ग़ज़ल की महत्ता की अस्वीकार नहीं किया जा सकता, किन्तु यदि आप भूखे हों आपके तेवर चढे़ होंगे तो शृंगार-रस से भीगी कविताएँ नहीं सुनना चाहेंगे और न ही सुनाना चाहेंगे। भरे पेट ही ग़ज़लें ग्राह्य और कुबूल की जा सकती हैं। धनाड्यों को चिन्ता नहीं करनी होती। गरीब, जहाँ चिंता है वहां तेवरी की आवश्यकता भी | यह चिंता तेवरी में यूं उजागर होती है-
”लूटकर खाते हैं वे अब देश की हर योजना।
उनकी खातिर हर प्रगति आहार होती जा रही।।”
[ अरुण लहरी ]
आज़ादी को इतने वर्ष बीत गये किन्तु राष्ट्र की करोड़ों की आबादी में सिर्फ कुछ ही ग़रीबी की सीमा से ऊपर हैं, शेष लोग अब भी ग़रीबी सीमा के नीचे हैं–
”भ्रष्ट हुई सरकार, आँकड़े बोल रहे।
जरा पढ़ो अखबार, आँकड़े बोल रहे।।”
[अरुण लहरी]
नेता अपने ऐशो-आराम तथा देश-विदेश घूमने में करोड़ों रुपये वार्षिक खर्च करते हैं? ऐसे लोग वोट के समय बड़े-बड़े आश्वासन देते हैं किन्तु जब कुर्सी मिलती है तो वे भूल जाते हैं-आखिर किसकी बदौलत उन्हें ‘यह कुर्सी’ मिली है तेवरी इसी सत्य को यूं उजागर करती है —
देख लो क्या हो गया है हाल अब सरकार का?
वोट से रिश्ता जुड़ा है तोड़ रिश्ता प्यार का।।
[अनिल कुमार ‘अनल’]
आज मनुष्य की सबसे बड़ी समस्या है-भूख निवारण की | तेवरी इसी बात को यूं उठाती है–
रोटी सबकी जान सखी री,
रोटी तन-मन प्रान सखी री।
नंगे-भूखों की बस्ती में,
रोटी है भगवान सखी री।।
[रमाकांत दीक्षित]
यहाँ देश की आधी जनता दो शाम भी भर-पेट भोजन भी नहीं कर पाती-
हर एक तन पर पड़ रही महँगाई की मार।
बस्ती-बस्ती लोग अब, रोटी को लाचार।।
[ रमेशराज ]
आर्थिक विपन्नता ने देश को राहू-केतु के समान ग्रसित कर लिया है। चारों ओर असन्तोष का साम्राज्य फैला है | इस असंतोष को तेवरी यूं व्यक्त करती है —
हर कदम मनहूसियत तो मुल्क में छाई न थी।
जो दशा है आज, वह पहले कभी आई न थी।।
[ राजेन्द्र सोनी ]
जन-असन्तोष के साम्राज्य अर्थात् ‘भूख’ को सदा बनाये रखने में समाज के शोषकों, ठेकेदारों तथा पूँजीवादियों के लिये ‘तेवरियों’ की आवश्यकता है, न कि शृंगार-रस में डूबे प्रेमालापों द्वारा रीतिकालीन कवियों के समान मन बहलाने वाली कविताओं-ग़ज़लों की।
कुछ लोगों द्वारा भले ही ग़ज़ल की महत्ता स्वीकार की जाये, पर भरे पेट ही ग़ज़लें सुनने में आनन्द आता है। यहाँ भूखे लोगों की सुबह-शाम चढ़ी हुई त्योरियाँ-भृकुटियाँ देखने को मिलेंगी, जिन्हें एक-एक पैसा जुटाने की चिन्ता असमय ही निर्बल, कृशकाय और मरनासन्न बना डालती है तथा मौत के करीब पहुँचाने में सहायक होती है | तेवरी समाज के इसी सच का आईना है –
जि़न्दगी पर भार-सी है जि़न्दगी।
आजकल बीमार-सी है जि़न्दगी।।
[ सुरेश त्रस्त ]
व्यक्तिपूजा अब यहाँ व्यापार होती जा रही है।
इसलिये इन्सानियत बेकार होती जा रही है।
{अरुण लहरी}
झूठों का होने लगा, गली-गली सम्मान।
ढोता भइया आजकल, हर सच्चा अपमान।
[ रमेशराज ]
तेवरी आदमी के बौनेपन पर यूं चोट करती है —
आज आदमीयत कितनी बौनी हो गयी है।
भूल गया है आदमी यह असलियत।
[ बिन्देश्वर प्रसाद ]
दरअसल इस असमानता, अनियमितता व भ्रष्टाचार आदि के विरुद्ध विद्रोह, असन्तोष, सन्त्रास, कुण्ठा तथा पीड़ा के स्वर को मुखर करने के लिए साहित्य की यदि कोई विधा है तो वह पद्य में तेवरी तथा गद्य में लघुकथा ही है। इसके सिवा और कोई दूसरी इतनी स्वीकार्य, उचित, सशक्त अभिव्यक्तिपूर्ण विधा नहीं। इस मत को आज सभी प्रबुद्धजीवी साहित्यकार भी स्वीकार करने लगे हैं।
तेवरियों की शैशवावस्था शीघ्र ही यौवनावस्था में पहुँचने की ओर अग्रसर है, उत्तरोत्तर विकास के पथ पर गतिशील रहेगी। तेवरी अपने लिये नहीं, जनता के लिये जीती है। इसी कारण वह जन-विरोधी मानसिकता पर तीखे प्रहार करना चाहती है–
”क्या खूब हुआ आज प्रजातन्त्र मेरे यार।
इस देश में तो हो गया चुनाव भी व्यापार।।”
[राधे गोबिन्द राजीव ]
तेवरी की प्रतीकात्मकता अनुपम —
सोखकर ले जाएँगे ताजे गुलाबों का लहू।
सिर्फ वादों की सुनहरी तितलियाँ दे जायेंगे।
[ अजीज आजाद ]
तेवरी में सामाजिक चिंता —
अतीत गया, वर्तमान भी टूट रहा है।
भविष्य का हो क्या, अब अंजाम देखिये।।
[ टी. महादेव राव ]
तेवरी में घिनौने सिस्टम का यह रूप देखिए —
”कातिलाना ढँग से वे मुस्कराये हैं।
जब कभी भी लौटकर दिल्ली से आये हैं।।”
[चरणलाल ‘चरण’]
तेवरी में रिश्तों का विद्रूप देखिए–
हमीं ने आपको पाला पसीने की कमाई से।
हमारे आप कुत्ते थे, हमी को काट खाया है।।
[ डॉ. देवराज ]
तेवरी आदमी के बौनेपन को यूं उजागर करती है —
देखिये, बेच डाली उन्होंने अपनी आदमीयत।
अब तो बौने दीख पड़ने लगे, ये शहर।।
[ बिन्देश्वर गुप्त ]
तेवरी आदमी का आकलन इस प्रकार करती है—
आदमी के स्तर में नहीं रहने लगा आदमी।
कुत्तों से भी बदतर अब लगने लगा आदमी।। 20
+बिन्देश्वर गुप्त
तेवरी राजनीति के विद्रूप को यूं उजागर करती है —
कर दिया कुर्सी ने देश को तबाह दोस्तो|
दूध-धुले हो गए सब स्याह दोस्तो।। 23
+चरण सिंह ‘अमी’
—तेवरी की प्रासंगिकता एवं सौन्दर्यबोध––
वास्तव में सौन्दर्य का बोध ‘तेवरी’ में जिस तरह से देखने को मिलता है, यह सौन्दर्य सिर्फ किसी नारी की गोरी चमड़ी में ही नहीं देखा जा सकता। सौन्दर्य का सम्बन्ध आत्मा से है, चाहे वह सौन्दर्य साहित्यिक विधाओं में किसी कविता, कहानी, लघुकथा, निबन्ध, ग़ज़ल या तेवरी का हो या मनुष्य का, सौन्दर्य की उपज व्यक्ति की मानसिकता व व्यक्तित्व से है, जो उसके विचार, मन, स्वभाव के द्वारा प्रदर्शित होता है।
ग़ज़ल में खूबसूरती अवश्य है, इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता। किन्तु किसी लावण्यमय यौवना की दोनों हथेलियों तथा पैरों में रचे मेंहदी और महावर, हाथ में हस्तचूर्ण तथा गले में कंठभूषण भले ही उसके शारीरिक सौन्दर्य में चार चाँद लगा दें और वह उर्वशी सदृश अति-सुन्दर दिखने लगे, किन्तु यदि वह कर्कशा व अभिमानी हो तो उसके सारे शारीरिक सौंदर्य फीके पड़ जाते हैं। दरअसल सौन्दर्य तो किसी के मन में देखा जाता है। उक्त आभूषणों से विहीन उस साँवली-सलोनी यौवना [तेवरी] में भी सौंदर्य देखा जा सकता है जिसकी लाज-भरी बोझिल पलकें मुँदती-खुलती, चेहरे पर मुस्कराहट तथा स्नेहसिक्त मृदुवाणी द्वारा दूसरों को सहज आत्मीय बना लेने की प्रवृत्ति से युक्त हो।
व्यक्तित्व के सौंदर्य के लिये सिर्फ वाह्य चेहरा ही नहीं बल्कि आंतरिक गुण भी होने चाहिये। तेवरी जनसाधरण के मन की अभिव्यक्तियों को ही प्रकट करती है-
आदमी को जहर दे कुत्ता लगे तुम पालने।
आदमीयत इस तरह पहले तो मर पायी न थी।। 23
+राजेन्द्र सोनी
तेवरी जनविचारों, भावनाओं का सम्मान करती है, जन-जन के दुःख में शामिल हो जाती है, उनकी कड़वाहट को पीती है, उनकी पीड़ा को अपनी पीड़ा समझ दीप की भांति सारी रात अँधेरे से जूझती है। नयी सुबह की प्रतीक्षा करती है-
राहत तुम को ये कल देंगे, बातें झूठी।
बिन खाये कुछ चावल देंगे, बातें झूठी।।
सिक्कों से चलते हों जिनके नाते-रिश्ते।
साथ तुम्हारे वो चल देंगे, बातें झूठी।। 25
+राजेश मेहरोत्रा
तेवरी प्रणय निवेदन नहीं, बल्कि कुव्यवस्था तथा असंतोष के खिलाफ विद्रोह की माँग जले हुए स्वरों में कहती है और यह तेवरी का सौंदर्य-बोध ग़ज़ल की अपेक्षा किसी भी दृष्टिकोण से निम्न नहीं कहा जा सकता। हाँ दोनों का जन्म एक ही माँ की कोख से हुआ, इसीलिए ये जुड़वाँ बहिनें कहलाने की अधिकारी हैं। अंतर बस इतना कि जन्म के पश्चात् एक ने हवेली-राजघराने-कोठे पर परवरिश पायी तो दूसरी ने फुटपाथ पर।
शिव कुमार थदानी [सम्पादक-दूसरा प्रतीक ] ने अपने आलेख ‘तेवरी मूल्यांकन के नये संदर्भ’ में [दूसरा प्रतीक जनवरी अंक 1985 ] में स्पष्ट कहा है-‘‘तेवरी में औपचारिकता का पूर्णतः अभाव एवं उत्पीडि़त-शोषित वर्गों से भावनात्मक लगाव के कारण उनके संघर्षों की बेलाग बयानी है, साथ ही व्यवस्था की क्रूरता का भयावह रूप भी प्रतिबिम्बत होता है इसमें-
कुल शहर बदहवास है, इस तेज धूप में।
हर शख्स जिंदा लाश है, इस तेज धूप में।।-
+गोपालदास ‘नीरज’
कुव्यवस्था, विसंगति, यातना, पीड़ा के बीच तेवरी का जन्म होने के कारण इसका विद्रोही स्वर मुखरित हुआ है और यह स्वर मौजूदा परिवेश को भयावहता व क्रूरता का जामा पहनाने वाले उन शोषकों, स्वार्थी नेताओं की देन है, जिस कारण तेवरी को ऐसा रूप मिला है-
टुकड़ा पाने के लिए था कल जो भौंका रात-भर।
आज वो कुत्ता शहर का, सुना नेता हो गया।। 28
+रामेश्वर हिंमाशु काम्बोज
—तेवरी का प्रतीकात्मक आलोक —
सूरज की हत्या करना आसान नहीं था लेकिन अब।
होता है सिलसिलेवार ये, खबर छपी अखबारों में।। 29
+राजकुमार निजात
हर ओर यहाँ छाया आज अँधेरा है।
इंसानों को नगरी में हैवानों का डेरा है।। 30
+फजल इमाम मलिक
कोल्हू के बैल की तरह चलते रहे हैं हम।
पग-पग पे अपने आप को छलते रहे हैं हम।। 31
+ गिरि मोहन ‘गुरू’
तीन बीघे खेत में इतनी फसल पैदा हुई।
चार दाने घर को आये, शेष जाने क्या हुई।। 32
+राजेश मल्होत्रा
तेवरी सरकारी आंकड़ों के मकड़जाल पर यूं प्रहार करती है–
आज देश की साँस-साँस पर कर्जे का।
लदा विदेशी भार, आँकड़े बोल रहे। 33
+अरुण लहरी
सवाल फिर भी यह है कि आज की परिस्थितियों में तेवरी तथा ग़ज़ल भावनात्मक व प्रायोगिक स्तर से भले ही दो अलग-अलग विधा मान ली जायें, जिसका फायदा तेवरी के समर्थक उठा रहे हैं, किंतु सैद्धांतिक रूप से पैदाइश के रूप में तो एक ही माँ के कोख से जन्मी हैं। हाँ वातावरण अलग होने के कारण दोनों के रूप में अंतर हो जाता है। किंतु आवश्यकता इसकी पैदाईश को भी अलग करने की है ताकि इसके सिद्धांत अर्थात् शिल्प भी ग़ज़ल से भिन्न हो, ताकि ग़ज़ल में तेवर के भाव दीख पड़ने पर उसे ग़ज़ल न कहकर तेवरी की मान्यता दे दें।
सवाल यह भी कि कोई छन्दयुक्त या छन्दमुक्त नयी कविता या गीत आदि, जिनमें तेवर के भाव स्पष्ट प्रतिबिम्बत होते हों, तो क्या हम उसे भी तेवरी कहेंगे? यदि नहीं कहेंगे तो क्यों नहीं कहेंगे? यही सवाल आज तेवरी के समर्थकों के लिए बड़ा प्रश्न बन गया है, जिसका उपयुक्त समाधान/ जबाव आवश्यक है ताकि तेवरी के विरोधी पक्षों की जुबां पर ताले लगाए जा सकें।
इतना तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि आज के जिस परिवेश/ परिस्थिति में हम साँस ले रहे हैं उसमें ग़ज़ल की नहीं, तेवरी की आवश्यकता है और इसी कारण लोगों का आकर्षण तेवरी की ओर अधिक दीख पड़ रहा है। अब वह दिन दूर नहीं, जब तेवरी को लोग मान्यता देने लगें—
शृंगार-विरह की, शराबो-शबाब की।
हर चर्चा बकवास है अब तेवरी कहो।। 35
+गिरि मोहन गुरु
सिर्फ बड़े व प्रसिद्ध कवियों द्वारा तेवरी को मान्यता नहीं देना कोई औचित्यपूर्ण नहीं दीख पड़ता है। दरअसल साहित्य में परिवर्तन परिस्थिति के अनुसार सदा होता आ रहा है और आज इसी परिवर्तन की आवश्यकता है।