‘तेवरी’ ग़ज़ल का एक उग्रवादी रूप
+सतीशराज पुष्करणा
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सुपरब्लेज के मार्च-85 अंक के ‘बहस’ शीर्षक स्तम्भ के अन्तर्गत रमेशराज द्वारा प्रस्तुत प्रतिक्रियात्मक आलेख ‘ग़ज़ल-ग़ज़ल है, तेवरी-तेवरी’ पढ़कर ऐसा प्रतीत हुआ जैसे यहां भी खालिस्तान की मांग की तरह पृथकतावादी का हाथ खड़ा किया जा रहा हो। यह तय है कि ग़ज़ल एक पुरानी विधा है जिसका अभिप्राय प्रायः माशूका के लिए ही लिखे जाने से रहा है। यह बात दीगर है कि आज परिस्थितियों के समानान्तर ग़ज़ल के कथ्य में कुछ विशेष किस्म का तेवर महसूस किया जा रहा है, तथापि दायरे वही हैं | इसी बदलते हुए तेवर को देखकर तथाकथित इसके पक्षधर लोग इसे तेवरी शीर्षक देकर एक अलग पहचान बनाने की कोशिश में लिप्त दिखाई पड़ रहे हैं।
परन्तु मेरी समझ से, अगर ग़ज़ल का तेवर बदला है तो इससे ग़ज़ल के अस्तित्व पर कोई खतरा उपस्थित नहीं हुआ है? तेवरी शब्द किसी भी भावनात्मक स्थिति को दर्शाता है न कि किसी भावना-विशेष के एक पक्ष को। यानी मासूका के प्रति लिखी गई ग़ज़ल में भी एक खास तेवर है। इसी प्रकार तथाकथित जेहादी किस्म के उस विचार वाले अथवा समकालीन स्थितियों के विरूपित करने वाले सद्दश काव्य रूपों में भी हम एक प्रकार का तेवर पाते हैं।
श्री रमेश राज के अनुसार शांति शीर्षक से क्रांति की बात नहीं की जानी चाहिए। दूसरी तरफ वे वह भी कहते है कि विरहाग्नि में जलती हुए प्रेमिका के चेहरे पर सूर्य की प्रखरता [ क्रांति के प्रतीक ] अथवा प्रकाश पिंड की चमक देखी जा सकती है। यानी दूसरी पंक्ति में वे इस बात को स्वीकार करते हैं कि मासूका की विरहाग्नि में लिखी गई गजल में तेवर की मधुरता उग्र-सी हो सकती है।
जैसाकि कहानी, लघुकथा, परीकथा, दंतकथा, संदर्भ कथा, आदि के वर्गीकरण के आधार के बावजूद ये सब कहानी हैं । रचना के कथ्य, विस्तार और संप्रेषणीयता आदि को मद्देनजर रखते हुए ‘तेवरी’ भी ग़ज़ल का एक उग्रवादी रूप ही है।