तेवरी का अपना ही तेवर +मदनमोहन ‘उपेन्द्र’
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यों लगभग एक दशक से यत्र-तत्र पत्र-पत्रिकाओं में तेवरी के विषय में हल्की जानकारी होती रही है और विगत दिनों बाबा नागार्जुन के सम्मान में आयोजित गोष्ठी में कोटद्वार प्रवास के दौरान तेवरी के पुरोधा डॉ . देवराज से भी मिलने का अवसर मिला और इस विषय में हल्की-फुल्की चर्चा भी हुई। और मुझे सदैव ऐसा ही लगा कि प्रगतिशील कविता, जनवादी कविता या शोषित-पीडि़त के लिए समर्पित कविता के आस-पास ‘तेवरी’ की कविताएँ अपना पड़ाव डाले नजर आती हैं।
जब मुझे अलीगढ़ आकर तेवरी के युवा कवियों के बीच बैठने का अवसर मिला और अलीगढ़ में इस कविता आन्दोलन के केंद्रबिन्दु श्री रमेशराज से चर्चा हुई तो ऐसा लगा कि तेवरी-कविताओं में जो दर्द, अकुलाहट, आग, आन्दोलन समाहित है, वह अवश्य कुछ नया कर गुजरने की क्षमता रखता है।
जब मुझे ‘तेवरी’ के कविता-संग्रह या यूं कहना चाहिये कि तेवरी-संग्रह पढ़ने को मिले तो उभरते हुये युवा कवियों में मुझे अभूतपूर्व संभावनाएँ परिलक्षित हुईं। इसीलिये इन तेवरी-संग्रहों की चर्चा करना यहाँ पर समीचीन होगा। यों ‘तेवरी-पक्ष’ एक त्रैमासिक पत्रिका भी प्रकाशित होती रही है। किन्तु ‘संग्रह’ उससे पृथक अपना स्थायी महत्व रखते हैं।
चर्चा क्रम में सर्वप्रथम फरवरी-83 में प्रकाशित तेवरी संग्रह ‘अभी जुबां कटी नहीं’ प्रस्तुत है- इस संग्रह में छः युवा कवियों की तेवरियाँ अपने नये अन्दाज में प्रस्तुत की गई हैं। इससे पूर्व पाठक रचनाओं तक पहुंचें, युवा सम्पादक-रमेशराज ने सम्पादकीय के माध्यम से व्यवस्था की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि प्रस्तुत करते हुये ‘तेवरी’ आन्दोलन की पृष्ठभूमि भी प्रस्तुत की है। तुलसी, विद्यापति, बिहारी, कालीदास और अज्ञेय की अपेक्षा अपने को कबीर, निराला, मुक्तिबोध, धूमिल और नागार्जुन से अधिक जुड़ा हुआ महसूस किया है, तेवरी की इस युवा पीढ़ी ने।
यों तेवरी शब्द तेवर का ही परिवर्तित रूप है, जिसका अर्थ है तासीर, गर्माहट आदि। किन्तु उसे एक आन्दोलन का रूप देकर रोमानियत की ग़ज़ल से पृथक गर्माहट का रूप मान लिया गया है। इस नाम को सृजित करने में डॉ. देवराज विशेष रूप से धन्यवाद के पात्र हैं।
तेवरी-संग्रह ‘अभी जुबां कटी नहीं’—-
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सर्वप्रथम ‘अभी जुबां कटी नहीं’ के कवियों में सर्वश्री अरुण लहरी, अजय अंचल, योगेन्द्र शर्मा की बानगियाँ प्रस्तुत हैं-
भ्रष्टाचार धर्म है उनका
दुर्व्यवहार धर्म है उनका।।
बेच रहे है वे सौगंधें
अब व्यापार धर्म उनका।।
अरुण लहरी की उक्त पंक्तियों में वर्तमान व्यवस्था की पतनोन्मुखी पराकाष्ठा का कितना सजीव चित्रण हुआ है।
अजय ‘अंचल’ को लग रहा है कि सारी शैतानी की जड़ कुर्सियाँ हैं, तभी तो वे लिखते हैं-
कुर्सियाँ सिखला रही हैं आदमी को देखिए
हर कदम पर इक नया व्यभिचार कोई क्या करे।।
तेवरीकर योगेन्द्र शर्मा यहाँ तक कहने को विवश हैं-
वही छिनरे, वही डोली के संग हैं प्यारे।
देख ले ये सियासत के रंग हैं प्यारे।।
श्री सुरेश त्रस्त, ज्ञानेन्द्र साज और रमेशराज भी संग्रह के अग्रिम कवि हैं । श्री सुरेश त्रस्त ने अपनी रचनाओं में लोकधुन को जीवित करने का प्रयास किया है-
दलदल में है गाड़ी बहिना
गाड़ीवान अनाड़ी बहिना।।
जीना है दुश्वार सखी री
होते अत्याचार सखी री।।
श्री रमेशराज ने अपनी लंबी 50 तेवरों की रचना के माध्यम से लोगों में आग उतारने, जोश भरने और जुझारूपन जुटाने पर प्रयास किया है। कुछ पंक्तियाँ बड़ी सशक्त बन पड़ी हैं –
अब हंगामा मचा लेखनी
कोई करतब दिखा लेखनी।।
‘गोबर’ शोषण सहते-सहते
नक्सलवादी बना लेखनी।।
महाजनों को देता गाली
अब के ‘होरी’ मिला लेखनी।।
अब टूटे हर इक सन्नाटा
ऐसी बातें उठा लेखनी।।
सम्पूर्ण रूप से ‘अभी जुबाँ कटी नहीं’ संग्रह की रचनाएँ यह सिद्ध करती हैं कि लेखकों की वह कतार अभी मिटी नहीं है, जिनकी जुबां में एक नया तेवर-नयी ताजगी मौजूद है। इसीलिये एक संग्रह का नाम सार्थक है कि यथार्थ लेखक वंश की “अभी जुबाँ कटी नहीं” है।
तेवरी-संग्रह ‘कबीर जि़न्दा है’—-
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तेवरी का दूसरा संग्रह ‘कबीर जि़न्दा है’ भी अपने तेवर में पिछले संग्रह से किसी भी प्रकार कमजोर नहीं कहा जा सकता। सम्पादकीय पृष्ठभूमि में भाई रमेशराज लिखते हैं कि ‘जब भी कविता सामाजिक यथार्थ के कतराकर चली है, तब-तब आम जनता की गर्दन पर पूँजीवादी ढाँचे के शोषण की तलवारें भरभराकर टूटी हैं। तेवरी एक आक्रोश, एक आन्दोलन के द्वारा व्यवस्था बदलाव का प्रयास है। अँधेरे के बीच मजदूर के पास एक लालटेन-सा है।’
तेवरी के कवियों के बीच में गालिब, मीर, मजाज, दाग, अज्ञेय, तुलसी, सूर की अपेक्षा कबीर साक्षात् अंतर्मन में बोलता नजर आता है। इस संग्रह में नये-पुराने तेइस कवियों की आग उगलती तेवरियाँ प्रस्तुत हुई हैं। राजेश महरोत्रा की कुछ पंक्तियाँ कितना सार्थक बयान प्रस्तुत करती हैं-
1. नदी किनारे तड़प रही मछली बेचारी
पानी से भर मरुथल देंगे बातें झूठी।।
2. तीन बीघे खेत में इतनी फसल पैदा हुई
चार दाने घर को आए शेष जाने क्या हुई।।
गिरि मोहन ‘गुरु’ की इन पंक्तियों में व्यंग्य की बानगी देखिए-
वैसे तो बिच्छुओं की तरह काटते हैं ये
अटकी पै मगर तलवा तलक चाटते हैं ये।।
डॉ. देवराज की गर्मागर्म तेवरी तेजी से प्रहार करती नजर आती है-
हमारे पूर्वजों को आपने ओढ़ा बिछाया है।
कफन तक नोच डाला लाश को नंगा लिटाया है।।
जमाखोरों कुशल चाहो अगर तो ध्यान से सुन लो।
निकालो अन्न निर्धन का जहाँ तुमने छुपाया है।
श्याम बिहारी श्यामल-‘आँख-आँख में लाल ख्वाब चाहिए, देश को फिर इन्क़लाब चाहिये’ कहकर कविता के प्रयोजन को व्यक्त करते हैं।
विक्रम सोनी भी व्यवस्था दोष की आम बात यूँ बयां करते हैं-
बिक रहा है आजकल ईमान भी
जि़न्दगी का हर हँसी उपमान भी।
ये व्यवस्था है गूँगी कोयल
इसको अब कूक की जरूरत है।।
‘गूँगी कोयल’ सर्वदा नया प्रतीक प्रयोग किया गया है। इसके लिये कवि बधाई का पात्र हैं ।
जगदीश श्रीवास्तव ने निम्न पंक्तियों में आज़ादी का नंगा यथार्थ व शोषित वर्ग के प्रति संवेदनशीलता व्यक्त की है-
सारी उमर हुई चपरासी, चुप बैठा है गंगाराम।
चेहरे पर छा गई उदासी, चुप बैठा है गंगाराम।
सुरेश त्रस्त की रचना में भी व्यवस्था पर ऐसी ही चोट करती बानगी प्रस्तुत हुई है-
हाथ जोड़कर महाजनों के पास खड़ा है होरीराम।
ऋण की अपने मन में लेकर आस खड़ा है होरीराम।।
रमेशराज की पंक्तियों में लगातार आक्रोश की ज्वाला सदैव जलती नजर आती है-
बस्ती-बस्ती मिल रहे अब भिन्नाये लोग।
सीने में आक्रोश की आग छुपाए लोग।।
रोजी-रोटी दे हमें या तो ये सरकार।
वर्ना हम हो जाएँगे गुस्सैले खूंख्वार।।
इसके अतिरिक्त और भी रचनाएँ इस संग्रह में अच्छी बन पड़ी हैं। संग्रह को पढ़कर ऐसा अवश्य लगता है कि आज के युवा कवियों के अंतर्मन में आज भी किसी न किसी रूप में ‘कबीर’ अवश्य जीवित है।
तेवरी-संग्रह ‘इतिहास घायल है’ फरवरी-85 में प्रकाशित तेवरी का तृतीय पुण्प है, जिसकी सम्पादकीय में बन्धुवर रमेशराज ने व्यवस्था के षड्यंत्रकारी स्वरूप को प्रस्तुत कर उसके द्वारा इतिहास को घायल करने वाले षड्यन्त्र को बे-नकाब किया है, जिसमें तेवरी के युवा कवि अपने जुझारूपन से संलग्न हैं।
तेवरी-संग्रह ‘इतिहास घायल है’—–
यद्यपि यह संग्रह पिछले संग्रहों से बाद में प्रकाशित हुआ है, किन्तु यह उनकी अपेक्षा और ओज-भरा नजर पड़ता है। इसमें सर्वश्री गजेन्द्र बेबस, दर्शन बेज़ार, विजयपाल सिंह, अनिल कुमार ‘अनल’, अरुण लहरी, सुरेश त्रस्त, गिरीश गौरव, योगेन्द्र शर्मा और रमेशराज की नूतन तेवरियाँ प्रस्तुत हुई हैं।
इस संग्रह की रचनाओं में तेवर ताजगी और आक्रोश लगभग वैसा ही है जो पिछले संग्रहों में देखने को मिला। व्यवस्था-विरोध, शोषित की बेबसी, सरकार की अकर्मण्यता, गरीबी, मजबूरी, भगवान, ईमान, सियासी चलन ठीक उसी रूप में प्रस्तुत हुए हैं जो लगातार पिछले संग्रहों में नजर आते रहे हैं।
उदाहरण के लिए दो-चार बानगियाँ देना ही पर्याप्त होगा-
अब कलम तलवार होने दीजिए।
दर्द को अंगार होने दीजिए।।
आदमीयत के लिए जो लड़ रहा।
मत उसे बेजार होने दीजिए।।
[दर्शन बेज़ार]
लोग खंडि़त हो रहे हैं एकता के नाम पर।
रक्तरंजित हो रहे हैं एकता के नाम पर।।
[गिरीश गौरव]
जब कोई थैली पाते हैं जनसेवकजी।
कितने गदगद हो जाते हैं जनसेवकजी।।
[रमेशराज]
तेवरी-संग्रह ‘इतिहास घायल है’ पढ़कर निश्चय ही यह एहसास होता है कि आज के जनसेवकों ने इतिहास को बुरी तरह घायल कर दिया है।
‘एक प्रहारः लगातार’ में तल्ख और तेजतर्रार तेवरियाँ-
अन्तिम क्रम में मेरे सामने सार्थक सृजन द्वारा प्रस्तुत कविवर दर्शन बेज़ार का प्रथम तेवरी-संग्रह है। यांत्रिक अभियन्ता होते हुए भी कवि बेज़ार ने जितनी तल्ख और तेजतर्रार तेवरियाँ लिखी हैं, वे निश्चित रूप से बधाई योग्य हैं। अधिक कुछ न कहकर उनकी कुछ बानगियाँ प्रस्तुत करके ‘एक प्रहारः लगातार’ को पाठकों से बार-बार पढ़ने और मनन करने का आग्रह करूँगा।
तेवरी-संग्रह ‘एक प्रहारः लगातार’ की रचनाओं में नई पीढ़ी को नये सृजन की महती प्रेरणा प्राप्त होगी-
फिर यहाँ जयचन्द पैदा हो गये।
मीरजाफर जिन पै शैदा हो गये।।
पुरस्कारहित बिकी कलम अब क्या होगा।
भाटों की है जेब गरम, अब क्या होगा।।
जिस हवेली को रियाया टेकती मत्था रही।
वह हवेली जिस्म के व्यापार का अड्डा रही।।
इस प्रकार निर्विवाद रूप से कवि बेजार का संग्रह ‘एक प्रहारः लगातार’ व्यवस्था पर लगातार प्रहार करने का सार्थक हथियार है, जो युवा पीढ़ी को और भी तीखा प्रहार करने की प्रेरणा देता रहेगा।
तेवरी-आन्दोलन के अधिकांश संग्रह क्रमशः अमर क्रान्तिकारी रामप्रसाद ‘बिस्मिल’, मन्मथनाथ गुप्त, अशफाकउल्ला खां और सरदार भगत सिंह को समर्पित हुए हैं। इससे यह भी सिद्ध होता है कि तेवरी के युवा कवि क्रान्तिकारी चिन्तन एवं सृजन को प्रतिबद्ध हैं। सम्पूर्ण रूप में इस आन्दोलनात्मक सृजन क्रम और प्रस्तुतिकरण के लिये भाई-रमेशराज और सार्थक सृजन प्रकाशन बधाई के पात्र हैं।