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6 Jan 2023 · 2 min read

तेवरी आंदोलन को क्रांतिकारी मन्मथनाथ गुप्त की शुभकामनाएं

तेवरी आन्दोलन को शुभकामनाएँ। मैं आप लोगों की ईमानदारी से खुश हूँ। किन्तु प्रश्न इस संघर्ष को इसी तरह आगे बढ़ाने का है। अक्सर युवाओं में शुरू-शुरू में काफी जोश रहता है लेकिन आगे चलकर वे या तो दिग्भ्रमित हो जाते हैं या किसी दल-विशेष के पुंछल्ले बन जाते हैं। यह स्थिति निश्चित रूप से साहित्य व समाज के लिए घातक होती है।
साहित्य में कार्ल मार्क्स से बहुत पहले कबीर ने ध्रर्म के चरित्र को पहचाना था। कबीर की वाणी बहुत ही मारक और क्रांतिकारी थी। मुसलमानों के शासन में भी ‘काकर-पाथर जोड़ के मस्जिद लई बनाय, ता चढि़ मुल्ला बाँग दे, का बहरा भया खुदाय’ जैसा तीखा प्रहार बड़े साहस की बात थी।
प्रेमचन्द से बहुत पहले सन 1928 में शरतचन्द्र चटर्जी व बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने ‘पथ के दावेदार’ व ‘आनंदमठ’ [जब्तशुदा] से इसी तरह का क्रांतिकारी प्रयास किया था। उसी आन्दोलन को तेवरी के माध्यम से आप आगे बढ़ाना चाहें तो इसमें कोई हर्ज नहीं। कोई भी राष्ट्र तभी आगे बढ़ सकता है जबकि वह सर्वमुखी प्रगति करता है। सच्ची बात तो यह है कि कविता में बड़ी शक्ति है।
कुछ साहित्यकार ऐसे हैं जो प्रारम्भ में अच्छा लिखते हैं, मगर बाद में अपने मार्ग से विचलित हो जाते हैं। उदाहरणार्थ जहाँ इकबाल ने ‘सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’ लिखा, वहीं बाद में ‘चीनो-अरब हमारा’ लिखकर हमें ठेस पहुँचाई। यही कारण है कि इकबाल की दो राष्ट्र के सिद्धांत की ‘बौद्धिक मदद’ देश के विभाजन में बहुत कुछ काम कर गयी। मगर उस नीति का क्या हुआ। भारत-पाकिस्तान में युद्ध छिड़ा। 1971 में पाकिस्तान की कमर टूटी। पाकिस्तान के याहिया खां ने 30 लाख बंगाली मौत के घाट उतार दिये। 1 लाख महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया और यहाँ इकबाल का दो राष्ट्र का सिद्धान्त पूरी तरह असफल हो गया।
इकबाल ने अपने उद्देश्य से भटककर जातीय संकीर्णता-ग्रस्त होकर हिन्दोस्तान के साथ-साथ पाकिस्तान का भी अहित किया। और इस नीति से सबसे ज्यादा अहित उर्दू का हुआ। पाकिस्तान उसी योजनानुसार बना, जिस योजनानुसार कोरिया के दो टुकड़े, जर्मनी के दो टुकड़े और वियतनाम के दो टुकड़े हुए। इनमें से केवल वियतनाम ही अब तक फिर से एक हो सका है। पर हम यह नहीं चाहते कि हम एक हो जाएँ। वह फले-फूले, पर वहाँ लोकतंत्र हो और तानाशाही राज्य समाप्त हो। लोकतन्त्र इसमें बहुत बड़ी भूमिका निभा सकता है।
इकबाल की तरह ही वीर सावरकर प्रारम्भ में साहित्यिक व अन्य दृष्टिकोण से क्रान्ति की मशाल जलाते रहे लेकिन बाद में उन्हें भी हिन्दूवाद का रोग लग गया। तब हमने उन्हें भी ऐसे ही रिजेक्ट कर दिया जैसे इकबाल को किया था।

भारत में, अफसोस यह है कि प्रगतिवादी खेमे में भी दो हिस्से हो गये। एक हिस्सा अपने आपको जनवादी कहता है। अफसोस यह है कि भारत के साम्यवादियों ने अपने जनयुद्ध के जमानों से कुछ नहीं सीखा। तेवरी आन्दोलन, मुख्य आन्दोलन [प्रगतिवादी] से अलग होकर पैदा हुआ है, पर यह सही विचार लेकर चल रहा है, इसलिए सफल भी होगा।

Language: Hindi
135 Views
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