तेरे शहर से मेरा गाँव अच्छा है
तेरे शहर से मेरा गाँव अच्छा है,
कुछ अस्त-व्यस्त, कुछ टूटा-फूटा, घर कच्चा है
लेकिन तेरे शहर से, आज भी मेरा गाँव अच्छा है,
बहुत कुछ नया चलन में पाया तेरे शहर आकर,
कोई किसी का साथ नहीं यहां सिर्फ देता गच्चा है !
शहर की ऊँची इमारतों में होते है जिस्म के सौदे,
मेरा गाँव इस मामले में अभी भी छोटा बच्चा है !
यहां विदेशी भाषा बोलकर बेवकूफ नहीं बनाते,
कम पढ़ा लिखा सही इंसान सीधा सादा सच्चा है !
शहर में तरसता हूँ मैं हाल-ऐ-दिल बयान करने को,
गाँव में सुकून से पास बैठने वाले कई सारे चच्चा है !
आया था तेरे शहर अपनी जिंदगी बसर करने को,
लुटाकर के सांसे कमाया बिमारियों का लच्छा है !!
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स्वरचित मौलिक – डी० के० निवातिया