तेरे शहर में वो बात नहीं
जो बात हे मेरे गाँव में
तेरे शहर में वो बात नहीं
जो सुकून हे मेरे गाँव में
तेरे शहर में वो दिन रात नहीं।
झरने बहते हे कल- कल
बहती ठंडी बयार हर पल
पेड़ो की वो शीतल छाया
कितना मधुर हे नदियो का जल।
पर तेरे शहर में तो
शोर शराबा और तनाव
अशुद्ध हवा हे
और नलो में सिमटा जल
मेरे गाँव का भोलाभाला
कितना मस्त कितना मतवाला
जीवन जीता हे उमंग से
बस थोड़े में खुश होने वाला
पर तेरे शहर का इंसान
हर पल नयी चाले चलता
खुद को आगे करने की चाहत में
बस पैसे के पीछे भागा फिरता।
मेरे गाँव के वो अनपढ़ काका
मुझे बुलाते ,पास बिठाते
जीवन की इस कठिन डगर में
जीने की नई राह सुझाते।
और तेरे शहर के पढ़े लिखे
जितना पढ़ते उतना अकड़ते
इनको बस खुद से मतलब
मुझे कहाँ इंसान समझते।