तेरी वापसी के सवाल पर, ख़ामोशी भी खामोश हो जाती है।
आहटें तेरी यादों की, यूँ बेमक़सद सी चली आती हैं,
की नींदें आँखों में, अब बस बेवफ़ाई हीं लिख पाती हैं।
सुखे पत्तों की सिलवटों की, आवाज़ें जो कानों से टकराती हैं,
बहारें जो जा चुकीं, उनके एहसासों को जगाती हैं।
लुका-छुपी तो स्याह बादलों की अब भी हो जाती है,
पर चाँद की झलक को कबतक ये छुपा पाती हैं?
लकीरें हाथों में खुद की नुमाईशें तो बखूबी कराती हैं,
पर क़िस्मत की धोखेबाज़ी से, कहाँ ये बचा पातीं हैं?
ये आँधियाँ जो दबे पाँव, इस सोये शहर को सहलाती हैं,
तो कोरे संदेशों में, तेरी खोयी खुशबू को भर जाती हैं।
मदहोशियाँ, बेमतलब से दस्तकों की आस जगातीं हैं,
पर होश के छींटों से तो, वो मोहब्बत भी घबरा जाती हैं।
वादे साथ चलने के हीं, भीड़ में तन्हाई को बढाती हैं,
और अनजान चेहरों में तेरी एक झलक को तरसाती हैं।
हाँ, तस्वीरों में तुझे ढूढ़ने आँखें, बेशुमार रातों को जगाती हैं,
यूँ साँसें आज भी खुद को, उस एक पल में थमा पाती हैं।
इरादों की वो मिठास, किस्सों के पन्नों को यूँ पलटाती हैं,
की अधूरी उस कहानी को, जिन्दा सा बताती हैं।
गूंज मेरी, वादियों के दिलों को तो भर्राती हैं,
पर तेरी वापसी के सवाल पर, ख़ामोशी भी खामोश हो जाती है।