तेरी पनाह…..!
” देख आज भी है…
कुल्हाड़ी के कितने प्रहार….!
लेकिन अब भी है…
प्रकृति की छटा बरकरार….!!
न कोई बंधन है , हम से…
न है , कोई करार….!
आज भी है , तेरे-मेरे शरारत…
तेरी-मेरी हठें है , इस पर सवार…!!
लेकिन तब भी है…
धरनी-धरा पर , प्रकृति की बहार…!!!
बदल दी है हमने….
मेघों की राहें…..!
तोड़ दी है हमने….,
गिरि की गरिमा बाहें…..!!
रोक दी है हमने….
नदी-झरनों की बहाव…..!
चूंकि हम पर है….
विकास की भारी दबाव…!!
कंकड़-पत्थर की ढेरों से..
हमने अपने महल बनाई है….!
मखमली चादरों से…
हमने अपनी सेज सजाई है…..!!
लेकिन चैन-सुकून-आराम..
यहां हमें नहीं मिल पाई है….!
मिला पेड़ों की छांवों में…
नदी-नालों की बहावों में….!
मेघों की साये में…
गिरि के बाहों में…..!!
झरने की तरानों में…
झीलों की शांत जल ठहराव में…!!!
सुकून बसता है…
प्रकृति तेरी ही पनाहों में….!!!! ”
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