तेरी धरा मैं हूँ
झुकने नहीं देता सर, प्रेम में बेशक झुक जाऊँ,
रुकने नहीं देता, थमने नहीं देता किसी पर,
हवा में उड़ता बादल वो, मुझे भी ले चलता है अपनी डगर,
कहती हूँ मैं कि मुझे अब ठहरना है, किसी धरा पर उतरना है।
“तेरी धरा मैं हूँ, और कहीं उतरने न दूँगा,
क्षणिक तू बेशक कहीं ठहर जा, अधिक देर तुझे किसी की होने न दूँगा,
कोशिश तू करे, तेरी कोशिशों पर पानी मैं फेरूँगा,
बनती बनती बात बिगाड़ दूँगा, अन्यथा तेरा ही मोह भंग कर दूँगा,
ऐसा नहीं तेरे कहीं ओर जाने से दिक्कत है,
बस कोई तेरी आँखों में आँसू ला दे, इतनी इज़ाजत किसी को नहीं दूँगा,
ये संसार है, तुझ-सा एक नहीं यहाँ,
तेरी प्यास को यह समस्त संसार अपर्याप्त है,
जानता हूँ जब मैं यह, क्यों तुझे इन लोगों में रमने दूँ,
तू थोड़े में भी खुश रह लेगी, जानता हूँ,
किसी से कुछ नहीं कहेगी, अपने आँसूओं को अपना भाग्य मान समेट लेगी,
पर ऐ मुझे पनाह देने वाली! मेरे होते तेरे हृदय में स्वयं से कम कैसे रख दूँ,
वो स्थान मेरा है, दूसरा कोई कैसे रह सकता है?
दूसरे कहीं भी रह लेंगे, उनके लिये सारा संसार है,
मेरे लिये संसार तू बन गई, सालों से तेरी जमीं तपती रही,
इतनी स्वतंत्रता देने वाली, कोई क्यों तेरे प्रेम को ठोकर पर रखे?
इतना हक मैं सच किसी को नहीं दूँगा, बेशक तू जग में सदा अकेली रहे,
तेरे समय का मैं स्वयं इंतज़ार करता हूँ,
कोई तुझे इंतज़ार में रखे, सहन नहीं होता,
सो उठ चलना है, बस यहाँ इतना ही काफ़ी था,
अब खाली हैं हम, अब क्या व्यक्त करना है?”
“पर अभी तो कहानी शुरू भी नहीं हुई”,
जब मैंने उससे हैरानीपूर्वक पूछा!
“हर बार वही कहानी नहीं कुड़िये, इतना फालतू समय नहीं”, उत्तर में वो बोला।
“सो अब आगे क्या?”, मैंने पुनः प्रश्न किया।
“अब चलते हैं, जाने का समय हो गया प्रिये”, मुस्कुराकर वो बोला।