* तेरी चाहत बन जाऊंगा *
डा . अरुण कुमार शास्त्री – एक अबोध बालक– अरुण अतृप्त
* तेरी चाहत बन जाऊंगा *
तुमको पता भी न चलेगा
मैं तेरे दिल में उत्तर जाऊंगा
काम ऐसे करूंगा मैं चुपचाप
कि अकेले में याद बहुत आऊंगा
हूँ तो मैं एक अजनबी तेरे लिए
पर याद रखना एक दिन आयेगा
कि तेरे लिए यही अजनबी
खासम खास बन जाएगा
तुमको पता भी न चलेगा
मैं तेरे दिल में उत्तर जाऊंगा
काम ऐसे करूंगा मैं चुपचाप
कि अकेले में याद बहुत आऊंगा
मेरी आदत् है मैं अपना नही बनाता हुँ
मेरी आदत है लेकिन अपने कार्यों से
सभी इन्सानों की चाहत बन जाता हुँ
मेरा मुझमें , हाँ , मेरा मुझमें तो कुछ भी नहीं
लेकिन उसी परवर र्दिगार की
रोशनी से , मैं हरपल टिमटिमाता हुँ
अमरत्व कहाँ मिलता हैं
इस संसार में किसी को भी
फिर भी अमर होने को
अपनी अपनी जु गत हर कोई लगाता है
तुमको पता भी न चलेगा
मैं तेरे दिल में उत्तर जाऊंगा
काम ऐसे करूंगा मैं चुपचाप
कि अकेले में याद बहुत आऊंगा
देखना तेरे देखते देखते मैं भी
एक न एक दिन अमर ही हो जाऊंगा
हूँ तो मैं एक अजनबी तेरे लिए
पर याद रखना एक दिन आयेगा
कि तेरे लिए यही अजनबी
खासम खास बन जाएगा
तुमको पता भी न चलेगा
मैं तेरे दिल में उत्तर जाऊंगा