तेरी चाहत अगर नहीं होती (गज़ल)
तेरी चाहत अगर नहीं होती
बे-ख़ुदी हमसफ़र नहीं होती
फ़िक्र-ए-परवाज़ अगर नहीं होती
ख़्वाहिश-ए-बाल-ओ-पर नहीं होती
ज़िंदगी को गले लगाते हम
ख़ूबसूरत अगर नहीं होती
डूब जाती हैं कश्तियाँ कितनी
साहिलों को ख़बर नहीं होती
चाक दामन न कीजिए जब तक
आशिक़ी मो’तबर नहीं होती
हम भी मसनद नशीन हो जाते
बे-नियाज़ी अगर नहीं होती
आजिज़ी, फ़िक्र, आगही, तहज़ीब
ऐसे-वैसों के घर नहीं होती
ये हवा भी कभी-कभी ‘ख़ालिद’
हामी-ए-बाल-ओ-पर नहीं होती