तेरा पिता हूँ
कोई सकता है बता।
क्या है मेरा पता।
नाम हमारा किसने संवारा,
दुखी चेहरा नहीं उसे गंवारा।
उसके अस्तित्व से पहचान,
हमारी साँसों में उसकी जान।
शीत में वह घाम,
हममें उसका नाम।
जेष्ठ की दुपहरी में
शीतल बयार ।
जीवन का सार,पूरा संसार।
वारिश की नीर,नदी नाव तीर।
हमारी तकदीर।
उंगली पकड़ के
चलना सिखाता,
घोड़ा बन पीठ पर बिठाता।
कंधे पर बैठाकर
मेला दिखाता, शैर कराता।
एक बात को हजार बार
भी पूछा,
फिर भी नहीं झल्लाया।
हमारे भविष्य के खातिर,
अपना वर्तमान गंवाया।
ऐसे ही गाड़ी आगे
बढ़ जाती है।
उसकी जवानी बुढ़ापे में बदल जाती है।
अब आती है हमारी बारी
उसको लगने लगती बीमारी,
हममे आ जाती दुनियादारी।
तमाम खोट नजर आते।
उनके संग थोड़ा वक्त
बिताने में कतराते।
उसके प्रश्नों का उत्तर नहीं दे पाते।
एक बार भी कुछ पूंछ ले,
झल्ला जाते ।
उसने तो विश्वविद्यालय पहुंचाया।
हमारे लिए घर बनाया।
अपनी बिगाङा,हमारी बनाया।
पर उसने क्या पाया।
हमारी अपनी है दुनियां,
एक बीबी एक मुन्ना एक मुनियाँ।
बस इतना होता संसार है।
इसके शिवा सब बेकार है।
मुझे पाने को कितनी
चोखट पे दुआ मांगी।
कहीं घण्टा तो कहीं चुनरी टांगी।
आज भी फरियाद को उठे हांथ।
तुम न चिंता करो मालिक तेरे साथ।
बस एक ही बात
उसे बार बार रुला दिया,
जब हमने कहा-
आप ने मेरे लिये
किया ही क्या।
यूँ ही उम्र सत्तर अस्सी पचासी।
हमसे मिलने को उसकी आंखें तरस जाती।
एक दिन ऐसा भी
वक्त आता,
घर से किसी का
फ़ोन जाता।
He is more.
सब तरफ शोर।
श्मसान का पथ,
रामनाम सत।
बचता बस फसाना।
गुजरा जमाना।
कुछ यादें जुबानी।
शेष एक कहानी।
समय की गति न्यारी,
आज उसकी
कल और की बारी।
आथित कक्ष सजा डाला।
दीवार पर टंगे
चौखटे पर माला।
तस्वीर तो मौन।
फिरभी पूंछ रही
आखिर …
बता मैं कौन।
तेरा पता हूँ।
तेरा पिता हूँ।
सतीश सृजन, लखनऊ.
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