*** तृष्णा ***
धरा पर ना जल है मन-मीन विकल है
आतुर अतृप्त – सा मानव तन है
************
तृष्णाओं – सी बढ़ती जाती
तन-तरुवर की छायां लम्बी
************
धोरों की धरती पर ललनाओं का चलना
पांवों का जलना जीवन को छलना
***************
कितना दुष्कर है जीवन
मीलों पैदल ही चलना
तप्त रेत पांवों का जलना
जल-बिन हाथों का मलना
********************
कैसा जीवन …………..?
जहां छलना ही छलना
कैसे मृगमरिचिकाओं से
अपनी गागर को भरना
रेत के सागर को तरना
*******************
कैसी विडम्बना है जीवन की
तृषित क्षुधायुक्त मानव को
फिर सूर्य-रश्मियां तप्त-उत्तप्त
जीना और दूभर कर जाती।।
*************************
?मधुप बैरागी