तू भी थोड़ा बदल जरा
तू भी थोड़ा बदल जरा
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सदियों से ये नदी निरन्तर
बस बहती ही जाती है
कदम कदम कठिनाइयों को
हरदम सहती जाती है
चीर के चट्टानों को इक दिन
मिल जाती है सागर में
रुकना है पर्याय मौत का
सबसे कहती जाती है
धारा से मिलकर के धारा
एक नदी बन जाती है
राहों की चट्टानों को फिर
मिलकर काट गिराती है
जाने कितने पर्वत जंगल
झाड़ी और झंखाड़ों से
करके दो दो हाथ नदी
खुद अपनी राह बनाती है
समझदार भी है कितनी
कि समझौते भी करती है
कहीं पे है विस्तारित तो
कहीं लघु रूप भी धरती है
इसके इन विस्तारों में
और संयम में हैं भेद बड़े
इससे प्रेरित हो मानवता
सजती और संवरती है
माँ बनकर इन नदियों ने ही
मानवता को पाला है
गर्भ से अपने जगत के सारे
इस जीवन को ढाला है
पर बड़े रंज की बात है कि
जिस आँचल ने आँसू पोछे
आज उसी को हम सबने
कितना मैला कर डाला है
हे सर्वोत्तम प्राणी तू अब
थोड़ा सा तो संभल जरा
अंधी सी इस दौड़ से बाहर
थोड़ा सा तो निकल जरा
पूरी मानवता के ऊपर
खतरा सा मंडराता है
बदल गए हालात सभी अब
तू भी थोड़ा बदल जरा
सुन्दर सिंह
11.01.2017