तू तो होगी नहीं….!!!
पिता के जीवनकाल में उनके समस्त पारिवारिक दायित्वों में उन्हें मानसिक व आर्थिक संबल प्रदान करने वाली वैदेही अपने मात-पिता की सबसे बड़ी सन्तान थी। एक साधारण दुकानदार पिता की पुत्री वैदेही ने बचपन से अपने पिता को ईमानदारी एवं मेहनत से तीन बेटियों, एक बेटे, पत्नी एवं दादी सहित एक भरे-पूरे परिवार का दायित्व माथे पर बिना शिकन निभाते देखा। पिता को उससे और उसे पिता से विशेष लगाव था। शायद इसी लगाव या स्नेह के चलते वह दसवीं कक्षा तक पहुँचते-पहुँचते उनके दायित्व को बहुत हद तक समझने लगी थी। कुशाग्र बुद्धि होने के कारण पढ़ाई में उसका मन बहुत रमता, पिता व दादी उसकी रूचि समझते और उसे समय-समय पर पढ़ने के लिये प्रेरित भी करते। दोनों ने ही अपने जीवन में अनेक उतार-चढ़ाव झेले थे, अतः शिक्षा का महत्व भली-भांति समझते थे। स्वयं पिता पढ़ाई में बहुत रूचि रखते थे और अपने समय में अच्छे विद्यार्थी रहे थे।
किन्तु पारिवारिक परिस्थितियों के कारण उच्च शिक्षा प्राप्त नहीं कर सके थे। अपने बच्चों को सदैव वह शिक्षित देखना चाहते थे। वैदेही ने दसवीं की परीक्षा के साथ ही घर पर छोटे बच्चों को ट्यूशन देना आरम्भ कर दिया था जिससे स्वयं उसका ज्ञान तो बढ़ा, साथ ही कुछ आर्थिक लाभ भी होने लगा। इस प्रकार वह पिता के दायित्व में कुछ सहयोग करने लगी। उसके अतिरिक्त उसके तीनों छोटे बहन-भाई भी पढ़ रहे थे। माँ व दादी घरेलू कार्यों में व्यस्त रहते थे।
समय अपनी गति से आगे बढ़ता रहा। वैदेही ने ट्यूशन पढ़ाने के साथ ही इंटर की परीक्षा उत्तीर्ण की। फिर पिता की सहमति से आगे की पढ़ाई प्राइवेट छात्रा के रूप में करने का निर्णय लेकर वह ट्यूशन पढ़ाने के साथ ही ब्यूटीशियन का कोर्स करने लगी। ग्रेजुएशन पूर्ण होते-होते वह एक ब्यूटीशियन के रूप में अपनी पहचान स्थापित कर चुकी थी। घर के छोटे कमरे में उसका ब्यूटी-पार्लर कमाई का एक अच्छा जरिया बन गया था। परिवार के सदस्य उसकी सफलता से उत्साहित थे। अगले कुछ वर्षों में उसने एम० ए० की डिग्री भी प्राप्त कर ली। मात-पिता व दादी अब उसके विवाह के लिये सोच रहे थे। किन्तु उसने पिता से उनके परिवारिक दायित्व में सहयोग हेतु पहले मँझली बहन के विवाह का सुझाव दिया।
पहले तो पिता सहित माँ व दादी ने इस पर आपत्ति की फिर परिस्थितियों को देखते हुए सब सहमत हो गये। अब तक तीसरी बहन भी ग्रेजुएट होने के पश्चात एक प्राइमरी स्कूल में अध्यापिका हो गयी थी। लेकिन मँझली बेटी के ब्याह के बाद से मानो पिता को नजर सी लग गयी थी। वह बीमार रहने लगे और एक रात अचानक उन्हें हार्ट-अटैक आ गया। इसके बाद परिवार के हालात जो इन कुछ वर्षों में बेहतर हुए थे, एक बार पुनः बिगड़ से गये। भाई अब इतना छोटा नहीं था। फिर भी पिता के साथ मदद के लिये दुकान पर जाना उसे अखरता था। उसके सपने कुछ अलग थे। पिता के स्वास्थ्य में पहले सी निरंतरता नहीं रही थी। अतः उन्होंने जल्दी ही तीसरी बेटी के ब्याह का विचार किया। वैदेही ने भी पिता की चिंता समझते हुए उनका साथ दिया, हालांकि दादी चाहती थी कि पहले वैदेही का विवाह हो। तीसरी बेटी के लिये रिश्ता पिता के एक पुराने मित्र के पुत्र के रूप में शीघ्र ही मिल गया।
दरअसल उनका बेटा आयु व योग्यता में तीसरी बेटी के लिये अनुकूल था। तीसरी बेटी की विदाई के बाद पिता और अधिक ढीले पड़ गये। भाई के मनमौजी स्वभाव के चलते दुकान अक्सर बंद रहने से आर्थिक नुकसान होने लगा। परिवार के भरण-पोषण की जिम्मेदारी वक्त गुजरने के साथ वैदेही के कंधों पर आकर ठहर गयी। दादी, पिता व माँ चाहकर भी बेटे न समझा पाते, न कुछ कर पाते। माँ का वक्त घर के साथ दादी व पिता की देखभाल में बीतता। दो-चार वर्ष बीतने तक भाई ने एक प्राइवेट फर्म में नौकरी आरम्भ की, साथ ही अपनी एक सहकर्मी से विवाह कर लिया। परिवार न चाहते हुए भी इकलौते बेटे के विवाह से सहमति जता बहू को घर ले आया। दोनों अपनी गृहस्थी सजाने में व्यस्त हो गये। पिता व दादी सदमे से अन्दर ही अन्दर टूट गये। माँ ने चुप्पी साध ली। वैदेही परिस्थितियों से जूझती जिम्मेदारी के भँवर ऐसी उलझी कि स्वयं की जिन्दगी और सपने भुला बैठी।
समय का चक्र अपनी गति से चलता रहा। पिता व दादी स्वर्गवासी हो गये। पीछे रह गये माँ और वैदेही, बहनें अपने-अपने परिवारों में उलझीं ; कभी मिलने आतीं या छुट्टी व त्योहारों पर आग्रह कर उन्हें बुला लेतीं। स्वयं वैदेही विवाह की अब न इच्छुक थी और न ही इसके उपयुक्त उसकी उम्र व घर का माहौल। माँ भी उम्र के साथ बीमार रहने लगी थी। घर के काम व उनके सहयोग के लिये पूरे दिन एक लड़की रख ली थी, जिसकी शिक्षा इत्यादि का जिम्मा वैदेही ने उसके परिवार से बात कर स्वयं ले लिया था। अतिरिक्त समय में वैदेही उसे ब्यूटीशियन का कार्य भी सिखाती जिससे कि वह भविष्य में आत्मनिर्भर हो सके।
सब कुछ सामान्य चल रहा था कि अचानक कोरोना का संक्रमण पूरे देश में फैल गया। वैदेही भी इससे बच न सकी, उसे भी संक्रमण ने जकड़ लिया। परन्तु समय पर उचित उपचार के चलते उसने शीघ्र ही कोरोना से मुक्ति पा ली। फिर भी इसके कारण उसकी कार्यक्षमता ववऊर्जा दोनों बुरी तरह प्रभावित हुए और वह काफी कमजोर हो गयी।
कोरोना के दो दौर उसके लिए काफी कठिन सिद्ध हुए। पहले दौर के संक्रमण ने उसे दूसरे दौर में अत्यधिक सावधान रहने पर विवश कर दिया। उसका स्वास्थ्य भी कुछ गिरा-गिरा सा रहने लगा। इससे उसके ब्यूटी-पार्लर के कार्य पर भी असर पड़ता दिखाई दिया। आर्थिक स्थिति बिगड़ने लगी।
परिणामस्वरूप परिवार एवं रिश्तेदार उसके लिए सहानुभूति रखते हुए उसे जताने लगे कि देहान्त से पूर्व उसके पिता व दादी जो उसे अपने मकान का वारिस बना गये थे, वह मकान उसे अपनी माँ अथवा भाई-बहनों में से किसी के नाम वसीयत कर देना चाहिए।
इधर किसी कारणवश माँ को मौसी के यहाँ जाना पड़ा और वहाँ उन दोनों के मध्य माँ एवं दादी के गहनों के विषय में चर्चा हुई। मौसाजी ने तुरन्त ही माँ को सुझाव दे दिया कि उन्हें जल्द से जल्द अपने गहने बेच देने चाहिए और अपनी दोनों बेटियों व बहू के बीच गहने बेचने पर मिलने वाली रकम बराबर-बराबर बाँट देनी चाहिए या फिर गहने ही अपनी इच्छानुसार उनके मध्य बाँट देने चाहिए, जिससे उनके देहांत के बाद बहनों व भाई का आपसी विवाद न हो। घर लौटने पर माँ ने वैदेही को यह बात
बतायी। यह सुनकर वैदेही पूछ बैठी कि आपकी तो तीन बेटियाँ हैं, फिर मौसाजी ने दो बेटियों के लिये ही क्यों कहा और स्वयं आपने क्यों इस पर कोई जवाब नहीं दिया ? क्या आपके अनुसार मैं आपकी बेटी नहीं हूँ ?
माँ का उत्तर था कि बेटी तो तू भी है। परन्तु तू तो स्वयं कमाती है। तुझे कोई कमी थोड़े ही है। सब कुछ तो है तेरे पास और वैसे भी मेरे बाद तू तो होगी नहीं, तू तो स्वयं बीमार रहती है।
माँ के उत्तर ने वैदेही का हृदय कहीं भीतर तक छलनी कर दिया। वह मन ही मन सोच रही थी कि बीमार तो माँ भी रहती है। फिर माँ ने उसकी पहले मृत्यु के विषय में ही क्यों सोचा ? क्या माँ की उसके प्रति यह सोच उनकी अपनी है या फिर उन्हें किसी के द्वारा समझाया गया है, वर्ना माँ कैसे कह सकती है कि उनके देहान्त के समय वह होगी ही नहीं या उसकी जिन्दगी मात्र पारिवारिक दायित्व-पूर्ति तक ही सीमित है…????
रचनाकार :- कंचन खन्ना,
मुरादाबाद, (उ०प्र०, भारत)।
सर्वाधिकार, सुरक्षित (रचनाकार)।
दिनांक :- ०७/०७/२०२२.