“परिवार”
परिस्थितियों के बीच,
प्रतिभा, चंचलता को खोकर,
अतिरिक्त कुछ नजर नहीं शेष,
न तो एहसास पनपते है,
बस याद आते हैं तो,
वो बचपन के दिन,
जो अब कल्पना मात्र है शेष!
जिस जन्मभूमि पर,
बचपन गुजारें,
पढ़ना-लिखना सीखा।।
पुराना घर, मिट्टी की
“मोटी दीवार”,
एक छोटे से “आंगन” में,
एक बड़ा “परिवार”,
अब कुछ शेष है तो बस,
अंत की ओर बढ़ रहें,
इंसानियत के सारे
“सपने” अधूरे,
हिस्से में कितना
“जीवन” बचा है?
अंदाजा लगा पाना
असंभव है कि
अब एक छोटे
“आंगन” में,
रहता खंडित
“परिवार”।।
राकेश चौरसिया