तुलसी विवाह
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वृन्दा से किया छल
देने देवों को संत्राण।
थे छद्म रूपी विष्णु गये
पति के रण में प्राण।
दिया क्रुद्ध हो कर वृंदा ने
विष्णु को यह श्राप
हो पाषाण हृदय तुम
सदा बने रहो पाषाण।
माता लक्ष्मी हुई व्यथित
वृंदा से करुण आव्हान किया
द्रवित हो तुलसी ने पुनः
तन धारण का वरदान दिया।
उसी क्षण प्रभु विष्णु ने
हो मुदित किया यह विधान
सदा होंगे सालिग्राम रूप में
विष्णु तुलसी संग विराजमान।
कार्तिक शुक्ल पक्ष
ग्यारहवां दिवस है आता।
देव प्रबोधिनी एकादशी
है कहलाता।
होता श्री गणेश शुभ कार्यों का
इस दिन से
जुड़े तुलसी-शालिग्राम का परिणय नाता।
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रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान )
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
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