तुम
मेरी सुबह हो तुम
मेरी शाम हो तुम
मेरा कल हो तुम
मेरा आज हो तुम।
क्या करूँ हमदम
डर लगता तुम से
वैसे तो मूर्खों के
सरताज हो तुम।।
मेरा मौन हो तुम
मेरी आवाज तुम
मेरा घर हो तुम
मेरा समाज हो तुम।
क्या करूँ हमदम
डर लगता तुम से
वैसे तो मूर्खों के
सरताज हो तुम।।
मेरा धन हो तुम
मेरा मन हो तुम
मेरा अंजाम हो तुम
मेरा आगाज हो तुम।
क्या करूँ हमदम
डर लगता तुम से
वैसे तो मूर्खों के
सरताज हो तुम
वैसे तो मूर्खो के
सरताज हो तुम
लेकिन….. बड़े
लाजवाब हो तुम
मैं जान सकूँ ना
वो राज हो तुम
मेरा तन हो तुम
लिबाज़ हो तुम
(नाराज मत होइएगा अब जो बोलूंगा सच बोलूंगा।)
सच कहता हूँ मैं
बहुत खास हो तुम
मेरी जिंदगी में आयी
दिन-रात हो तुम।
क्या करूँ हमदम
डर लगता तुम से
वैसे तो मूर्खों के
सरताज हो तुम।।
(मैं तो सुधरने वाला नहीं हूँ, क्योकि आज का दिन ही ऐसा है।)
स्वयं कथन
ये कविता सिर्फ मनोरंजन के लिए है।
जो इस समय पढ़ रहा है उसके लिए है
(गुस्ताखी माफ, ओनली मजाक)
स्वरचित
सुखचैन मेहरा
श्री गंगानगर, राजस्थान।
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