तुम ही बस हो मेरे अपने
कुछ तो रोज ही भूल जाती हूँ मैं
कुछ याद भी ‘जरा सा’ रहता है
तुम रह जाते हो उस ‘जरा सा’ में
दिल फिर और कहीं नही लगता है
तुम कहते हो ये सब कुछ बेमानी है
दिल कहता है ये मेरी मनमानी है
तुम कहते हो ये तेरी नादानी है
दिल कहता है नही…ये तो प्रेम कहानी है
मैं ढूंढूं निस दिन कुछ मन के आले पर
यादों के दिलकश बंद ताले पर
जहां सब यादें बिखिरी रहती है
कुछ सिमटी सिमटी बस फिरती हैं
हंस हंस के मेरा मुंह वो तकती हैं
मुझको पगली बस वो कहती हैं
कहती है तुम ही बस हो मेरे अपने
फिर क्यूँ बिनुं मैं नए सपने
याद तो आनी जानी है
सच्ची प्रति मगर सदा रह जानी है !
…सिद्धार्थ