तुम – हम और बाजार
तुम – हम और बाजार
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तुम्हारी आंखों में सपने थे
मेरे पास थी
उन सपनों की फेहरिस्त
तुम रोज सपने देखती थीं
मैं रोज देखता था
अखवार का वह पन्ना जिसमें होता था
दैनिक खाद्य सामग्री के बाजार भाव
कभी भी तुमने
सपना देखना बंद नहीं किया
और मैं कभी भी नहीं भूला
अखवार का वह पन्ना देखना
मेरी हिम्मत नहीं हुई कभी
सपनो से भरी तुम्हारे आंखों को निहारने की
तुम्हारी भी तो
इच्छा नहीं हुई कभी भी
मेरी जेब टटोलने की
मैं झोला लेकर तुम्हारे साथ
जब भी बाजार निकला
जेब यकीनन मेरी रहती
पर हमेशा सामान की सूची तुम्हारी
मुझे याद नहीं कभी भी
तुमने पूरी सूची मुझे दिखाई हो
और मुझे भी याद नहीं
कभी मैने अपनी जेब की हकीकत
असल में तुम्हे बताई हो
पता नहीं कैसे
तुम खरीद करती रहीं
और मैं उस खरीद का भुगतान करता रहा
पता नहीं क्यों
कभी तुमने नहीं कहा
कि ‘लो यह तो लेना छूट ही गया’
और कभी मैने भी नहीं कहा
कि ‘बस करो जी, अब जेब खाली है’
हम बेशक बाजार से
पूरा भरा झोला कभी भी
घर न ला सके
लेकिन निसंदेह हर बार हम
मन भर खरीद करते रहे,
पर आपस में छिपाते रहे
जरूरी दरकार
ख्याल रखते रहे एक दूजे का
यूं भी निभाते रहे प्रेम का इजहार
हम करते रहे यूं ही हमेशा
एक दूसरे का लिहाज
और बचाते रहे कोई भी कारण
जिससे टूट जाते हैं दिलों के साज
जेब नहीं, इच्छाओं की फेहरिस्त नहीं
न ही कोई बाजार
जीवित रहा बस
आत्मीयता का सरोकार
टिक न सका कुछ भी बीच
दरमियाँ रहा सिर्फ प्यार…..
– अवधेश सिंह