“*तुम सांझ ढले चले आना”*
“तुम साँझ ढले चले आना”
सुबह सबेरे सूर्य उदित हो ,
काम की धुन में हड़बड़ी लिए हुए,
खामोश निगाहें पलकें झुकी हुई ,
इधर उधर हलचल भगदड़ मची हुई ,
चले जाते अपने मुकाम पर सभी कोई,
वापस लौट आने को कहते हुए ,
विदा ले मन को समझाते जाना ,
तुम साँझ ढले चले आना…!!
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गोधूली बेला की सुहानी साँझ ,
सूरज ढलता अस्त हो चला ,
पँछी अपने नीड को लौटते हुए,
गौए रंभाती गले में बजती घँटी हुई,
बछड़े दौड़ गौए के पीछे चलते हुए,
ग्वाले पीछे हाँकते चले आ रहे ,
लालिमा छटा बिखेर आकाश में,
मंद मंद रोशनी का कम होते जाना।
तुम साँझ ढले चले आना…
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उजाला कम हो सूर्य अस्त हो चला ,
अजीब सी दास्तान सुबह से साँझ हो जाना ,
घर आँगन उम्मीद के जब दीप जले ,
द्वार खोल जब अंदर चले जाना,
राह तकती अँखियाँ तुम्हे ही खोजती हुई,
कह के गए घर वापस जल्दी लौट आना ,
सूरज विदा ले अंधियारे में ही ,
चंद्र किरणों की शीतलता ठंडी हवाएं ,
मंद मंद खुशबु बिखेरते हुए जाना।
जलते दिए की रौशनी की तरह जीवन में चमकते जाना,
वादा किया वो बातें फिर भूल ना जाना।
तुम साँझ ढले चले आना …! !
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शशिकला व्यास शिल्पी✍️