तुम सदैव रहोगे केंद्र बिंदु…
तुम रूह में बसे हो निकालूं कैसे
अपने बेपरवाह ज्जबतों को संभालूं कैसे…?
… सिद्धार्थ
२.
वो देखो, नदी का दूसरा किनारा
अनंत तक दोनों किनारे साथ चलेंगे
सागर की ओर,
देखते एक दूसरे की छोर
किनारे का महत्व ही नही होता
गर दोनों के दरम्यान,
पानी बहती न होती
बिल्कुल वैसे ही जैसे हम बंधे हैं
एक दूसरे के ज्जबातों से
हम और नदी का किनारा एक समान ही तो हैं
उन दोनों के बीच भी कुछ है
और हमारे बीच भी
बस उस कुछ को सूखने मत देना
तभी तो… हम साथ चलते रहेंगे,
अनंत तक, अगम्य तक
तुम्हारे हमारे मौन का भी प्रभाव नही पड़ेगा
तुम अपने किनारे रोपना ढेर सारी फूल पत्ती
उगाना रात रानी के बेल,
सुंदर सपनों का अमर बेल
खुशबू मुझ तक भी आयेगी
मेरे अंतर को तर कर जाएगी
और मैं, मै कुछ गीत लिखूंगी
बेढंगी सी, चिल्का के रुदन सी
मैं खचा खच भर दूंगी सारे किनारे को
रोते बिलखते सपनों से,
हाशिए पे परे अपनों से
किसानों के भोथराए हसिए से
खेतों में टंगे लाशों से,
मजदूरों के टूटती आसो से
अपने किनारे के रेत पे,
मै ढेर सारे शब्द बाउंगी
मगर… कुछ अलग, बिलकुल अलग
छलकते आंखों पे,
रोती सिसकती रातों पे
लोगों के बनिया हुए जज्बातों पे
माओ के बिलखते होठों पे,
बेटियों की आहों पे उनके खुले घावों पे
मैं सब पे लिखूंगी कविता
और हां… तुम्हारे मौन पे भी
तुम्हारे छिटकने और अपने ठिठकने पे भी
मै चर्चा करूंगी तुम्हारे हमारे झगड़ा और रगरा का
जो कभी हुआ ही नही, हो भी नही सकता
मै सब को शब्दों से आकर दूंगी
और वो तैरते हुए तुम तक पहुंचे तो
थाम लेना, अनमने ही सही स्वीकार लेना
क्यूं कि तुम सदैव रहोगे केंद्र बिंदु…
… सिद्धार्थ