तुम ताल न मारो
निगल कर दौलत बहु सारी ,
ज्ञात हुए अज्ञात हैं ।
पीट रहे लकीरों को ,
समझ कर अब वो साँप हैं ।
माना उनकी छाँया में बिषधर ,
पीते भर भर प्याले थे ।
इनकी नाक के नीचे भी तो ,
उसने अरबों पर फ़न मारे थे ।
ढोल फटा जब खुद से ही ,
अब तो पोल सम्हलो ।
मढ़ा नही सको जो इसको ,
ढपली पर तुम ताल न मारो ।
…. विवेक दुबे”निश्चल”@..