तुम जीवन सार हो
जब तुम्हारा विहग मन उड़ जायेगा
प्रेम तरुवर की मधुरतम छाँव को
कामनाओं का बड़ा उद्यान बनकर
बाँध लूँगा मैं तुम्हारे पांव को
ज्यों भटकते अक्षरों को जोड़कर
शब्द बनता है कोई सार्थक
भावनाओं की जमीं पर रोपकर
पा सकोगे ताल सुरलय की खनक
तुम भटकती चाँदनी में तैरती
पूर्णमासी की सुनहरी रात हो
तुम सरोवर की सतह पर बिछ रहे
कमल दल पर हो रही बरसात हो
तुम मेरा अस्तित्व, कविता, प्यार हो
तुम छलकते नेह का आधार हो
देह नस में दौड़ता संचार हो
प्राण – प्रिय ! तुम, जीवन सार हो
प्रदीप तिवारी ‘धवल’