तुम क्या समझो
तुम क्या समझो
स्वरचित
मत समझो की तुम्हें देख कर मैं जीता हूँ.
या नहीं देख कर मर जाता हूँ…..
या तेरे योवन सागर मे डुबकी लेने
या फिर नयन सूधा रस पीने को आता हूँ….
देखा नहीं आज तक तेरे वक्षस्थल को
एड़ी तक विखरी है या फिर वौव करीने कटी जुल्फ हैं…
नहीं पता है चाल तुम्हारी हिरनी से कितनी मिलती है
पर होठों के स्पंदन से बिना कहे भावार्थ व्यक्त है….
मादक आँखें लोच कमर में है या नहीं न मुझे पता है,
और चाँदनी में तुम कैसी लगती होगी ये सोचा है….
सुनी है मेने सप्त स्वरों से गुंजित कुछ आवाज तुम्हारी…
उद्वेलित मन को ठंडक सी आहिस्ता पद चाप तुम्हारी…
देखा मेंने अथाह सागर सा निर्मल ये हृदय तुम्हारा…
अनवरत प्यार मृदु भाषण और आकर्षक व्यवहार तुम्हारा…
जब जब मेरे सुसुप्त हृदय में उक्त गुणों की स्मृति आती,
चलता चलता एक यंत्र सा निकट तुम्हारे आजाता हूँ….
मत समझो की तुम्हें देख कर मैं जीता हूँ,
या नहीं देख कर मर जाता हूँ…..
भारतेन्द्र शर्मा (भारत)
धौलपुर