तुम कितना सुख पाओगे
दूसरों की टांग खींचकर तुम कितना उठ जाओगे
औरों को दुख दे देकर तुम कितना सुख पाओगे
अपने पापों को तुम छुपा लोगे दुनिया वालों से
उस दिव्य दृष्टि से लेकिन खुद को कहां छुपाओगे
दूसरों की जेब काटकर अपनी तिजोरी भरने वालों
जब कर्मों की गठरी खुलेगी पुण्य कहां से लाओगे
जाति धर्म के नाम पे तुमने जो इतना खून बहाया है
दामन पे लगे रक्त रंजित दागों को कैसे मिटाओगे
बलिष्ठ सुन्दर काया के अहंकार में आंखें ताढ़े रहते हो
ढलेगी जब जीवन की शाम तब बहुत पछताओगे
पाप और पुण्य का सब लेखा जोखा रखा जाता है
जैसे होगी करनी “अर्श” तुम वैसा ही फल पाओगे