तुम इतना जो मुस्कराती हो,
तुम इतना जो मुस्कराती हो,
तुम हरदम इतना जो बिंदास मुस्कराती हो,
लगता है खुद से कहीं खुद को चुराती हो।
शेफालिका के फूल सी निर्झर झरती हो,
पाषाण को भी पारस बन पिघलाती हो,
दर्द मिटाने के कुछ लम्हे उधार देकर…
जमाने को मसखरा बन यूं हंसाती हो।
सजी संवरी सी धूप को धूल चटाती हो,
बेफ्रिक, गर्वीली, निश्चल सी लजाती हो,
वक्त को अपने अंदाजो की हंसी देकर….
नदिया के यूं बहते पानी सी बहती हो।
चंचल चपल नैनों में काजल समाती हो,
शीतल सी प्रणय समीर बन बहती हो,
मन व्याकुल को नैनों की थिरकन देकर…
भावो की चुगली को चेहरे से छिपाती हो।
इतर इतर के कनखी मार शरमाती हो,
खोखली हंसी में हर विषाद छिपाती हो,
चित्रलिखित मिजाज को जीवन रंग देकर…
अपने जज्बे से हार में जीत हर्षाती हो।
तुम हरदम इतना जो बिंदास मुस्कराती हो,
लगता है खुद से कहीं खुद को चुराती हो।
निशा माथुर