तुम अपने गिरने कि हद खीचते ही नहीं, देखो हम गर गिरे तो जलजला आएगा !
अख़बार बेच रहे हैं वो सस्ती में
सपने बिखरे हैं अपनी बस्ती में।
बांकी सब अपने-अपने मस्ती में
फांका बस गरीबों की बस्ती में।
किस को पड़ी है भूखे नंगों की
किस को पड़ी है बेबस बंदों की।
सब खेल रहे हैं अपनी हस्ती में
जर-जमीन के खीचा कस्ती में।
चंद टुकड़े धरती के उन्हें जो पाने हैं
कुछ सिक्कों को भी तो खनकाने है।
अपनी जात की धौंस उन्हें दिखलाने है
बेबस-मजलूमों को औंधे मुँह गिराने है।
इस लिए इन्हें जरा और अभी इतराने है
सबको ठोक-पीट के ठिकाने भी लगाने है।
यही सोच मजलूमों को दवाया जाता है
खुलेआम खून उनका बहाया जाता है।
सर फोड़-फाड़ खेतों में दौराया जाता है
बंदूकों की गोली से जान निकाला जाता है।
ये सब कुछ राम राज में ही होता है
राम मुँह फेर बस चुपके से सोता है।
अब लाशें बिछी है खेतों में उनकी
जो गरीब आदिवासी ही कहलाते थे।
आदि काल से जोत कोर कर खाते थे
उससे ही अपना घर परिवार चलाते थे।
अब हैं रोते बच्चे और बिधवाबिलाप
घर-घर में फैली है मातमी अभिषाप।
जिसे देख बिधाता भी अब नहीं रोता है
दुख इनका अपनी छाती पे नहीं ढोता है।
वर्दी वाले भी मस्त हैं अपनी ही गस्ती में
सरकार लगी है एक दूजे पे ताना कस्ती में।
सब कुछ महंगा बिके इस देश की मंडी में
आदम की जान बिके बस सबसे सस्ती में।
अंधी सरकार के हाथों से इंसाफ किया न जायेगा
इंसाफ के राह में जिगरी ही खड़ा नजर आएगा।
इंसाफ की बातें तो लदी हैं कागज के किस्ती में
बांकी सब के सब बातें सरकार के धिंगा-मस्ती में !
…सिद्धार्थ