तुम्हे देखने की आस
तुम्हे देखने की आस लगाए हुए हैं हम।
राहों पर अपनी पलकें बिछाए हुए हैं हम।
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अल्लाह जाने कब मिलेगा मुझे सुकून।
कब से गमों का बोझ उठाए हुए हैं हम।
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पत्थर नहीं बरसे हैं ताज्जुब है मुझे आज।
कब से तेरी गलियों में आए हुए हैं हम।
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किसने तुझे रोक दिया मेरे कत्ल से।
तेरे हुजूर सर तो झुकाए हुए हैं हम।
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मिजाज पूछते हो मुझसे तो लो सुनो।
उजड़े हुए चमन को सजाए हुए हैं हम।
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एक उसके ही सितम से गम क्यों हुआ सगीर।
जालिम जहां से पहले सताए हुए हैं हम।
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डॉक्टर सगीर अहमद सिद्दीकी खैरा बाजार बहराइच