तुम्हे क्या पता !???
..
कह सकती हो तुम
निष्ठुर मुझे
इसमें कोई अपवाद नहीं !
परन्तु परिस्थिती के
संकिर्णता में जकड़कर
खुद अपने मन की
आकाँक्षाओं का अतिक्रमण
जो मुझे करना पड़ा
तुम्हे क्या पता !??
..
नवोदित अभिलाषाएँ मेरे
तुम्हारे आँखों में
पलते थे,
तुम्हारे अधरों के
बागीचों में
मेरे सपने पनपते थे,
ज़िन्दगी के दोराहे पर
तुम्हे तज कर
अपनी इच्छाओं की
लाश को
तिलाञ्जली जो मैंने दी
तुम्हे क्या पता !??
..
कोई औचित्य नहीं
मेरे जीवन का यहाँ,
तुम्हारे अविश्वास और
तिरस्कृत
नज़रे हो जहाँ,
निर्विवाद
तुम कोई भी
निष्कर्ष निकालो
लेकिन
विवशता में
तुम्हारे त्याग से
“प्रेम” का अभाव
जो मुझे सहना पड़ा
तुम्हे क्या पता !??