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8 Feb 2022 · 1 min read

तुम्हें नहीं

मैंने जब-जब लिखना चाहा,
दौड़ते-भागते संसार को चाहा,
तुम्हें नहीं।

उपवन में मुस्कराते वृक्षों को लिखा,
पेड़ों से पत्ते अलगाते पतझड़ को लिखा,
तुम्हें नहीं।

बरगद की लताओं में झूलते बचपन को लिखा,
रङ्गीन तितलियों में भँवरे के कालेपन को लिखा,
तुम्हें नहीं।

चीखती-चिल्लाती आवाजों को लिखा,
बदहवास बैठे खाली मन को लिखा,
तुम्हें नहीं।

कँपकँपाती सर्द हवाओं में,
अङ्गीठी की गर्मी चाही,
तुम्हें नहीं।

एक तीखी टीस लिखी,
मन के हार जाने की,
तुम्हें नहीं।

कहानियाँ बड़ी सुलझी होती हैं,
तो मैंने हमेशा कविताएँ लिखी,
तुम्हें नहीं।

Language: Hindi
260 Views
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