“तुम्ही तुम”
जला के राख करती है , तपिश तेरी निगाहों की ,
पिघलती अब शमा रहती , तुम्हारी शोख़ चाहों की .
बिना तेरे भला कैसे ,मुकम्मल ख्व़ाब सब होते ,
इसी आग़ोश में जी के , करूं चाहत पनाहों की .
हमारे दरम्याँ है क्या , बता पाना नहीं मुमकिन ,
कहीं भी मैं रहूँ चाहे, गिरह छूटे न बाहों की .
खिजाँ भी गर कभी , तनवीर में बदले मुहब्बत से ,
अदावत भूल के, दुनियाँ , बदल डालो कराहों की .
तुम्ही से ज़िन्दगी ओ बन्दगी ओ तिश्नगी सब कुछ ,
कहे काफ़िर मुझे दुनियाँ , सज़ा दे दे गुनाहों की .
अनीता मेहता ‘अना’