तुम्हारी ही आँखों से हम देखते हैं
ग़ज़ल
ये काबा ये काशी हरम देखते हैं
कि अपना ख़ुदा तुझमें हम देखते हैं
ज़माने के सब ख़ूबसूरत नज़ारे
तुम्हारी ही आँखों से हम देखते हैं
नहीं कुछ भरोसा हमें अगले पल का
नज़र भर के तुमको सनम देखते हैं
तिरी इन्तिजारी से उकता गया दिल
तिरी राह मुद्दत से हम देखते हैं
पता मंजिलों का वो देते हैं जब भी
कहीं उनके नक्शे-क़दम देखते हैं
यही नस्ले-नौ का तरीक़ा है लोगों
अलग जाविये से कलम देखते हैं
हमारी ग़ज़ल हो गई कहकशां’ना
जहाँ तक सितारों को हम देखते हैं
ग़ज़ल ले रही है नयी एक करवट
ये दुष्यंत ग़ालिब अदम देखते है
नज़ीर नज़र