तुम्हारी शरारतें
एक डिब्बे में सम्भाल कर रखी हैं तुम्हारी शरारतें
ज़िंदगी एक हिस्से में बसा रखी हैं तुम्हारी शरारतें
कभी रात सिरहाने लगा सो जाता हूँ
कभी बिछा लेता हूँ तुम्हारी शरारतें
जब कोई नहीं होता तो तन्हाई होती है
तब बहुत याद आती है तुम्हारी शरारतें
नर्म हल्का सा कंबल हैं ओढ़ने के लिए
कभी शूल सी चुभन हैं तुम्हारी शरारतें
डा राजीव “सागरी”