तुम्हारा मन दर्पण हो,वत्स
(1) तुम्हारा मन दर्पण हो,वत्स
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तुम्हारा मन दर्पण हो
कि पहचान सको स्वयं को
अपनी कमियों के साथ प्रथम
भाग्य के सहारे नहीं,
कर्मठता को फिर।
तुम्हारा तन अर्पण हो
देखे हुए स्वप्न को।
तर्क,बुद्धि,विवेक से संचालित
पूरने के संकल्प के साथ।
प्राणपन से फिर।
आशीर्वचन और शुभकामनायें
अनुगामी हों।
स्निग्ध अंकों से उतरकर
कठोर धरती पर पाँव टिकाओ तुम।
प्रतिकूलताओं को आँख दिखाओ तुम।
हर अप्राप्य ऊंचाइयों पर
ध्वज फहराओ तुम।
अंधेरा तबतक अंधेरा है
जबतक कोई लौ न उठे मचल।
पराजय तबतक है पराजय
जबतक तुम उठो न सँभल।
मन के संसार में तन को
पिरोना सीखो।
स्तब्ध,नि:शब्द आकाश में
चीखना सीखो।
हर युद्ध को अदम्य प्रण से
जीतना सीखो।
तुम कुशलता से हर कौशल
सीखना सीखो।
आशीर्वाद प्राप्त हो तुम्हारे दर्पण को ।
अनहद नाद प्राप्त हो तुम्हारे मन को।
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2/9/22