*तुमने पढ़ा नहीं*
दिल ए अखबार पे छ्पा है क्या ? तुमने पढ़ा नहीं ।
मेरी कशिश को क्यों ?अपनी दिले परत में गढा नहीं।।
हरेक वरक़ पे मेरी ,अनगिनत लकीरें कूँड़ सी खिंची
चढ़ा तुमहे मये नशा,पर सफ़र मेरी गमों का चढ़ा नहीं।।
अपनी जिंदगी नरक तव हुयी बहुत सम्भलने के लिए
हैवानियत के खौप में डरते रहे,मग़र कभी लड़ा नहीं।।
हमने उस्ताद का बूत बना के लियाँ है हुँनर जीने का ये
वो झूठी मोहब्बत का अवसाद पीके भी हमें हड़ा नहीं
गमें आफ़जा के ज़ाम से , ज़्यादा हुए जर्जर हम
जाने किसकी रहमत से बच गए,क़ि कुछ बिगड़ा नहीं ।।
मार तो बहुत खाई है ‘साहब’ आदिम ए कौमियत की
फिजा में अफ़सोस है वाकी,फ़र्क़ लवजों में पड़ा नहीं।।