तुमको ताब क्यों नही है क्यों बेताब हो तुम
तुमको ताब क्यों नही है क्यों बेताब हो तुम
जलने वालो बताओ क्या आफताब हो तुम
ये जर्जर गुम्बद तुम्हारी झुकती क्यों नही है
जिसमे कैद हैं दिवाने क्या वही बाब हो तुम
जन्नत के दरवाजों के रंग भी फीके लगते हैं
देवता की आंखों का क्या कोई खाब हो तुम
घूम-घामकर दोनों को जुदा-जुदा हो जाना है
मैं दरिया का एक मुसाफिर और नाव हो तुम
मैं जानता हूँ ‘आलम’ मे क्या वजूद तुम्हारा है
जो गैरों की लौ से रौशन है वो महताब हो तुम
मारूफ आलम