तुझमें मुझमें रहा न अन्तर
जैसे छिपी रात में प्रात
शान्ति छिपाए झंझावात
कड़ी धूप में छिपकर बैठी
रहती है भीषण बरसात
वैसे ही तू मुझमें आया
मैं भी तुझमें सदा समाया
तुझमें—मुझमें भेद न कोई
मैं तुझमें, तू मुझमें छाया
तुझमें—मुझमें रहा न अन्तर
तू ही बाहर, तू ही अन्दर
मेरी नहीं, दौड़ तेरी ही
जारी है अविराम निरन्तर
मायामय है आना—जाना
केवल भ्रम है खोना—पाना
मिथ्या हैं जग के प्रपंच सब
सार एक तू जाना—माना
— महेशचन्द्र त्रिपाठी