तिश्नगी दिल की वो बढ़ाते हैं
तिश्नगी दिल की वो बढ़ाते हैं
दुश्मनी हमसे ज्यों निभाते हैं
बेहयाई तो देखिये उनकी
ज़ख्म देते हैं मुसकुराते हैं
लूट लेते हैं वो ही गुलशन को
जिनको हम बागबाँ बनाते हैं
मंज़िलें साथ छोड़ जाती है
रास्ते ही वफ़ा निभाते हैं
एक छोटी सी बात में कितने
लोग मफ़हूम ले के आते हैं
फूल आए न आए हिस्से में
ख़ार से ज़िंदगी सजाते हैं
लोग दौलत के वास्ते ‘माही’
आदमीयत को बेच जाते हैं
माही