तिलका छंद “युद्ध”
गज अश्व सजे।
रण-भेरि बजे।।
रथ गर्ज हिले।
सब वीर खिले।।
ध्वज को फहरा।
रथ रौंद धरा।।
बढ़ते जब ही।
सिमटे सब ही।।
बरछे गरजे।
सब ही लरजे।।
जब बाण चले।
धरणी दहले।।
नभ नाद छुवा।
रण घोर हुवा।
रज खूब उड़े।
घन ज्यों उमड़े।।
तलवार चली।
धरती बदली।।
लहु धार बही।
भइ लाल मही।।
कट मुंड गए।
सब त्रस्त भए।।
धड़ नाच रहे।
अब हाथ गहे।।
शिव तांडव सा।
खलु दानव सा।।
यह युद्ध चला।
सब ही बदला।।
जब शाम ढ़ली।
चँडिका हँस ली।।
यह युद्ध रुका।
सब जाय चुका।।
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तिलका छंद विधान –
“सस” वर्ण धरे।
‘तिलका’ उभरे।।
“सस” = सगण सगण = 6वर्ण प्रति चरण की वर्णिक छंद।
(112 112),
दो-दो चरण समतुकांत
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बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’ ©
तिनसुकिया