तिरस्कार
………तिरस्कार……
युगो युगो से सहती नारी,
अपनों से तिरस्कार।
शस्त्र से ज्यादा शब्दों का,
होता मन पर आघात।
दोष भले ही न हो उसका,
फिर क्यो वह दोषी कहलाती है।
कहीं पे वह अपमानित होती,
कहीं पे वह पूजी जाती है।
अपनी एक मुस्कान के पीछे,
कितने दर्द समेटे हैं
कहीं हसीं न हो जाए,
आंचल से आसु पोछे हैं।
सबको सम्बल देने वाली को,
अबला कहकर दुत्कार दिया।
तुम औरत हो औरत की तरह रहो,
यह कहकर सबने तेरा अपमान किया।
जो जन्मदात्री बनकर के ,
एक जीवन का र्निमाण करे।
वह कैसे अबला हो सकती है,
इस बात का कोई मुझे जवाब दे।
स्वरचित मौलिक रचना
रूबी चेतन शुक्ला
अलीगंज
लखनऊ