***तिनके के बोल, ये मानव आँखें खोल***
तृण कहता अजब कहानी,
खुद की पीड़ा, खुद की जुबानी,
मुझमें नर में अन्तर कैसा,
जो नर हो पशुबुद्धि जैसा,
मैं तो पेट भरूँ पशुओं का,
करता छाया हर घर-घर का,
पशुनर से तो मैं अलबेला,
बंजर भूमि में तृण अकेला ॥1॥
पशु नर से सब पक्षी अच्छे,
जिनके स्वर लगते हैं सच्चे,
चित को भाते अद्भुत न्यारे,
मुझको भी अपनाते प्यारे,
क्या ! नर से तुलना मैं कर दूँ
कथन पूर्व आँसू मैं भर लूँ,
ठग विद्या से करता है मेला,
बंजर भूमि में तृण अकेला॥2॥
उर में धरता कलुष हैं शातिर
कड़वे बोल निकाले आख़िर,
सोच लगाता परधन ठग में,
करे पाप सोचे न कल में,
और सताता हर प्राणी को,
खुद ही नाशै जीवन क्यारी को,
सोचे न, जीवन मिट्टी का डेला,
बंजर भूमि में तृण अकेला॥3॥
करे निशि-वासर तेरा मेरा,
मकड़जाल में खुद को है घेरा,
मैं तो छोटा तिनका ही ठहरा,
पर यह क्यों हो जाता बहरा,
हे परमेश्वर! दे दो इसे बुद्धि,
करे सत्कर्म कर ले यह शुद्धि,
करें ईश से अपना यह मेला,
बंजर भूमि में तृण अकेला ॥4॥